कविता..
इस धरा पर औरतें..
हम, हमेशा खटते मजदूरों
की तरह, लेकिन, कभी
मजदूरी नहीं पातीं .. !!
और, आजीवन हम इस
भ्रम में जीतीं हैं कि
हम मजदूर नहीं मालिक…
हैं…!!
लेकिन, हम केवल एक संख्या
भर हैं ..!!
लोग- बाग हमें आधी आबादी
कहते हैं….. !!
लेकिन, हम आधी आबादी नहीं
शून्य भर हैं… !!
हम हवा की तरह हैं..
या अलगनी पर सूखते
कपड़ों की तरह ..!!
हमारे नाम से कुछ
नहीं होता…
खेत और मकान
पिता और भाईयों का होता है..!!
कल -कारखाने पति
और उसके,
भाईयों का होता है.. !!
हमारा हक़ होता है सिर्फ
इतना भर कि हम घर में
सबको खिलाकर ही खायें
यदि,बाद में
कुछ बचा रह जाये..शेष … !!
ताजा, खाना रखें, अपने
घर के मर्दों के लिए.. !!
और, बासी
बचे -खुचे खाने पर
ही जीवन गुजार दें….!!
हम, अलस्सुबह ही
उठें बिस्तर से और,
सबसे आखिर
में आकर सोयें…!!
बिना – गलती के ही
हम, डांटे- डपडे जायें
खाने में थोड़ी सी
नमक या मिर्च के लिए…!!
हम, घर के दरवाजे
या, खिड़की नहीं थें
जो, सालों पडे रहते
घर के भीतर…!!
हम, हवा की तरह थें
जो, डोलतीं रहतें
इस छत से उस छत
तक…!!
हमारा .. कहीं घर..
नहीं होता…
घर हमेशा पिता का या पति
का होता है…
और, बाद में भाईयों का हो ru
जाता है… !!
हमारी, पूरी जीवन- यात्रा
किसी, खानाबदोश की
तरह होती है
आज यहाँ, तो कल वहां..!!
या… हम शरणार्थी की तरह
होतें हैं… इस.. देश से.. उस
देश .. भटकते और, अपनी
पहचान ..ढूंढते… !!
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महेश कुमार केशरी
C/O- मेघदूत मार्केट फुसरो
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