जो अब भी साथ हैं
परिवार के अन्य सदस्य या तो ‘बड़े आदमी’ बन गए हैं या फिर बन बैठे हैं स्वार्थ के पुजारी। तभी तो कोई नहीं ठहरता उन कमरों के पास जहाँ धीरे-धीरे मौन में बदल रही है दादा-दादी की पुकार। न कोई आता है तन्हाई का साथी बनने न पूछता है स्वास्थ्य का हाल न किसी को…