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विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्य

 विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्य प्रारंभ से ही साहित्य एवं समाज में एक अटूट संबंध रहा है। …


 विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्य

विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्य

प्रारंभ से ही साहित्य एवं समाज में एक अटूट संबंध रहा है। साहित्य में समसामयिक घटक सदैव उजागर होते हैं। बाल साहित्य अभिव्यक्ति की एक समर्थ विधा है, जो कि जीवन के समकालीन यथार्थ को सामने लाने में सक्षम है। इसे मानव मन की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति माना गया है। बाल कहानियां बालकों के अंतर्मन का प्रतिबिंब होती हैं। बालक उस कच्ची मिट्टी के समान होते हैं जिन्हें जिस आकार में ढालने का प्रयास किया जाए वे वैसे ही आकार का रूप ले लेते हैं। बच्चे हमारा भविष्य हैं, इसलिए बाल्यावस्था रूपी कच्ची किंतु उर्वर मिट्टी में संस्कारों के बीच डाल दिए जाने चाहिए तभी वह समय आने पर अंकुरित, पल्लवित होकर कल के अनुशासित, संवेदनशील और  सभ्य नागरिक के रूप में पुष्पित होंगे। बाल साहित्य की रचना को लेकर डॉ. नागेश पांडेय संजय के विचार दृष्ट्व्य है “ऐसा बाल साहित्य जिसे पढ़कर बच्चे आनंदित हो, उनका सम्यक विकास हो और वह आत्म सुधार तथा जीवन के संघर्षों से जूझने की दिशा में क्रियाशील हो सके, सही मायने में वही बाल साहित्य है। भले ही उसकी रचना बाल साहित्य के रूप में नहीं हुई हो। वस्तुतः बाल साहित्य का प्रणयन अत्यंत कठिन कार्य है। बच्चों द्वारा स्वयं अपने लिए लिखा जाना कठिन है और बड़े सभी बाल मानसिकता से ऊपर उठ चुके होते हैं। बाल साहित्य लेखन को इसलिए परकाया प्रवेश की संज्ञा दी गई है। बाल अनुभूतियों को आत्मसात कर उसे उन्ही की भाषा में प्रस्तुत करने वाला ही वास्तविक बाल साहित्यकार है।“1

युवा लेखक विकास बिश्नोई नए युग के लेखक हैं। वे समय सापेक्ष लेखन में पारंगत है। उनकी बाल कहानियां बच्चों की दुनिया को समृद्ध बनाने का प्रमुख स्रोत है। यह कहानियां बच्चों में सही गलत की समझ विकसित करती हैं। उनमें आत्मविश्वास, सजगता के गुण निर्मित करती हैं। उनकी कहानियों के सशक्त पात्र मानवीय गुणों को ग्रहण करते हुए बिना किसी उपदेश के बच्चों में अच्छे बुरे की समझ पैदा करते हैं। यह बाल कहानियां बच्चों की मनः स्थिति के साथ सामंजस्य बिठाकर उन्हें सहज ही संस्कारों की ओर उन्मुख करने की विशिष्टता रखती हैं। लेखक ने अपनी बाल कहानियों के विषय बालकों के इर्द-गिर्द परिवेश से ही आत्मसात किये हैं। जिनको पढ़कर बच्चे कल्पना लोक की अपेक्षा यथार्थ के धरातल पर वस्तुओं की परख करते हैं। जिससे बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास से व्यवहारगत परिवर्तन परिलक्षित होने लगता है। बालक अपने परिवेश को, रिश्तों को सूक्ष्मता से जांचने लगते हैं। कहानीकार विकास बिश्नोई के बाल कहानी संग्रह ‘आओ चले उन राहों पर’ की कहानियां रोचक होने के साथ-साथ बच्चों को जिंदगी की छोटी से छोटी सीख बहुत ही सरल एवं सहज ढंग से देती हैं। इनमें समसामयिक परिवेश को भी बड़ी शिद्दत के साथ प्रसंगानुकूल उजागर किया है। यह कहानियां ग्रामीण एवं महानगरीय भाव बोध को उजागर करने में सफल रही है।

विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्यों को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत देख सकते हैं –

उपेक्षित आत्मीय संबंध एवं पारिवारिक विघटन-

पिछले एक दो दशकों में परिवार प्रणाली में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव अनुभव किए गए हैं। आधुनिक भोगवादी युवा पीढ़ी अतिशय सुख सुविधाओं की तलाश में स्वार्थी होती जा रही है। संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार लेते जा रहे हैं। भौतिक चकाचौंध एवं अर्थोपार्जन की उत्कृष्ट पिपासा ने जीवन शैली को तो बदल दिया है परंतु समाज में हर तरफ मूल्य का संक्रमण दिखाई पड़ता है, जिससे तनाव, असंतुष्टता एवं द्वन्द्वों में बढ़ोतरी हुई है। पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित आधुनिक पीढ़ी में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है, जिसके परिणाम स्वरूप वे संयुक्त परिवारों में रहना पसंद नहीं करते। आधुनिक पीढ़ी सुख सुविधाओं से संपन्न होने के बाद अपने माता-पिता को फालतू सामान समझती है। आज हमें कई हृदय विदारक कहानियां सुनने को मिल जाएगी जहां बच्चों ने अपने माता-पिता के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए उन्हें घर से निकाल दिया या वृद्ध आश्रम भेज दिया। विकास बिश्नोई की कहानी ‘श्राद्ध’ के प्रमुख पात्र रमेश को भी अपनी वृद्धावस्था में अपने पारिवारिक सदस्यों की ओर से उपेक्षा एवं अपमान झेलना पड़ा। वृद्धावस्था में व्यक्ति को भावनात्मक सहारे की आवश्यकता होती है परंतु रमेश के बेटों ने पिता के साथ दुर्व्यवहार करते हुए पहले उसे घर पर ही नजरबंद किया और फिर वृद्धाश्रम छोड़ आए। आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागते हुए युवा अपने कर्तव्यों व संस्कारों को भूलते जा रहे हैं। जिन माता-पिता ने उनके जीवन के हर अच्छे बुरे वक्त में उनको संभाला आज उन्हें संभालने के लिए संतान के पास ना तो समय है और ना ही सामर्थय। मरणोपरांत रमेश अपने मित्र जगदीश से अपने दिल की व्यथा इस प्रकार कहते हैं –“काश मेरे जीते जी यह दोनों बच्चे मुझे इसका आधा भी प्रेम कर लेते तो मैं यहां तुम्हारे साथ ना होता। मेरे बीमार होने पर मुझे घर के कोने में और बाद में वृद्धाश्रम में असहाय ना छोड़कर थोड़ा सा ध्यान दिया होता। आज जितना समय दान आदि में लगा रहे हैं, उतना समय काश मेरे साथ बैठकर सुख-दुख की बात में लगा देते। मरने के बाद भी मुझे कंधा देने का समय उनके पास नहीं था। भला आज मेरे पीछे से यह श्राद्ध करने का क्या लाभ?”2

 एक सुप्रसिद्ध कहावत है कि “पूत कपूत तो क्यों धन संचे, पूत सपूत तो क्यों धन संचे।“ अर्थात् यदि पुत्र सपूत है तो धन संचय का लाभ नहीं क्योंकि वह अपने लिए स्वयं धन कमा लेगा और यदि पुत्र कपूत है तब भी धन संचय का कोई लाभ नहीं क्योंकि वह कमाया हुआ धन उड़ा देगा। अधिकतर माता-पिता भावुक होकर अपनी जायदाद अपने बच्चों के नाम कर देते हैं। फिर उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया जाता है। आर्थिक स्वतंत्रता बुजुर्गों के लिए परम आवश्यक है। बुजुर्ग लोक लाज के डर से अपने साथ हुए गलत व्यवहार के लिए अपने बच्चों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई नहीं कर पाते। यही गलती रमेश द्वारा भी की गई जब उसने अंधविश्वास करके अपना सारा कारोबार अपने बच्चों के हाथों में सौंप दिया और अपने दुर्भाग्य के द्वार स्वयं खोल दिए। 

2. आधुनिकीकरण एवं पर्यावरण चेतना-

आधुनिकीकरण की अवधारणा आधुनिक विकास की गतिशील प्रक्रिया से संबंधित है। वहीं पर्यावरणीय चेतना से अभिप्राय हमारे आसपास के वातावरण से संबंधित समस्याओं की जागरूकता से है और उनके समाधान की दिशा में किए जा रहे प्रयासों से है। आधुनिकीकरण की एक विडंबना है कि एक तरफ जहां विकास है तो दूसरी तरफ भारी विनाश भी है। लगातार तीव्र आधुनिकीकरण से प्रदूषण भी बढ़ा है, जिससे प्रकृति के लिए बहुत बड़ा खतरा बन रहा है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में हो रहे प्रयोगों से, रासायनिक क्रांति से, कई सूक्ष्म जीव और वायरस उत्पन्न हुए हैं, जिसका भयंकर परिणाम करोना वायरस के रूप में पूरे विश्व ने झेला है। आधुनिकीकरण की आड़ में मनुष्य ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए पर्यावरण का काफी नुकसान किया है, जिससे पर्यावरण संकट बढ़ रहा है। विकास बिश्नोई की कहानी ‘आदत से मजबूर’ में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि मानव की स्वार्थ लिप्सा से पर्यावरण का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है। मानव की वर्तमान जीवन शैली और शहरीकरण से जुड़ी योजनाएं पर्यावरण के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई है। अंधाधुंध शहरीकरण के कारण पेड़ काटे जा रहे हैं और पक्षियों का आश्रय समाप्त होता जा रहा है। कल कारखाने खुलने से पर्यावरण प्रदूषण में बहुत बढोतरी हुई है। पक्षियों का पलायन भी पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से एक गंभीर समस्या बन चुका है। हालांकि जब करोना काल में जीवन की रफ्तार काफी धीमी पड़ गई थी ऐसे में प्रकृति ने स्वयं को पुनः संवारना प्रारंभ किया था। “माँ : बेटा ! आज इंसान कोरोना महामारी से जूझ रहा है, जो उसके खुद के कर्मों का ही फल है। हम जैसे जीवों को मारकर वह खाता है, जिसकी वजह से यह वायरस फैला। इस मानव जाति ने प्रकृति को कई प्रकार से नुकसान पहुँचाया है। अपनी सुख सुविधाओं के लिए उसने पेड़ काट दिए, जीवो को मार डाला। हर ओर अपने कारखाने लगा दिए, नदियों को गंदा कर दिया और भी ना जाने क्या क्या, जिसका परिणाम तो उसे भुगतना ही पड़ेगा। अब प्रकृति का कहर उस पर टूट रहा है।“3 ऐसे कठिन समय में प्रकृति प्रेम के समानांतर पर्यावरणीय चेतना जागृत करने की बहुत आवश्यकता है।

3 संचार क्रांति का आधुनिक जीवन पर प्रभाव-

वर्तमान समय तकनीक व संचार की क्रांति का युग है। 21 वीं सदी में मोबाइल फोन ने संचार के क्षेत्र में एक नई उपलब्धि हासिल की है। प्रारंभ में मोबाइल केवल एक संचार माध्यम के तौर पर प्रयोग होता था परंतु धीरे-धीरे मोबाइल व्यक्ति के जीवन का अह्म हिस्सा बन गया है। बढ़िया स्मार्ट फोन, इंटरनेट नेटवर्क की सुविधा हमारी बुनियादी आवश्यकता बन गई है। आज बच्चों से लेकर बूढ़े तक सभी इसका प्रयोग कर रहे हैं। यदि सही ढंग से मोबाइल का प्रयोग किया जाए तो यह किसी वरदान से कम नहीं है। ‘मोबाइल है ना’ कहानी में लेखक ने जहां वित्तीय लेन देन, ऑनलाइन बुकिंग, खरीदारी जैसे रोजमर्रा के कार्यों में मोबाइल फोन को उपयोगिता सिद्ध की है, वहीं इसके दुष्परिणामों की ओर भी संकेत किया है, जैसे प्रत्येक आयु वर्ग के लोगों में फोन की लत लगने का भय, समय की बर्बादी, बच्चों के सर्वांगीण विकास में कमी, अवसाद, आत्मकेंद्रित एवं अकेलेपन की समस्या इत्यादि। कहानी में गांव से आई सचिन की मां के लिए सभी पारिवारिक सदस्यों का हर समय मोबाइल फोन में व्यस्त रहना एक गंभीर एवं चिंतनीय विषय है। बच्चों का सुबह स्कूल और शाम को खेलने के लिए बाहर ना जाना, उनमें संस्कार तथा मूल्यों के निर्माण के प्रति किसी का ध्यान ना होना, मां को अच्छा नहीं लगता। “अरे मां, आजकल सब ऑनलाइन मोबाइल से हो जाता है। कहीं आने जाने की जरूरत नहीं होती। दुनियादारी, संस्कार, मित्रता वगेरा सब क्या, मां ने हैरानी से पूछा। लेकिन इस बार सचिन के पास कोई जवाब नहीं था। थी तो बस अपने बच्चों के भविष्य की चिंता।“4

आर्थिक स्वावलंबन एवं बचत की आदत-

आर्थिक स्वावलंबन अपने सामर्थ्य से आत्मनिर्भर होने की प्रक्रिया है। निसंदेह वर्तमान समय में मनुष्य के जीवन में धन का महत्व सबसे अधिक है, क्योंकि व्यक्ति की वित्तीय स्थिति के आधार पर ही उसकी सामाजिक स्थिति का आंकलन किया जाता है। धन से हम अपनी सभी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है कि ‘बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपया’। पश्चिमी देशों  के प्रभावाधीन आज बहुत से लोग अपने वर्तमान के लिए तो सुख सुविधाएं जुटाते हैं परंतु भविष्य के लिए संग्रह नहीं करते जिससे प्रतिकूल परिस्थितियां आते ही उन्हें कर्ज उठना पड़ता है और बाद में समय पर कर्ज न चुकाने के कारण अवसाद तनाव की स्थिति में रहते हैं। हमारे बड़े बुज़ुर्ग हमेशा अपनी आमदनी में से भविष्य के लिए कुछ बचत करने की सीख देते हैं और बच्चों को यह बचत की आदत प्रारंभ से ही सिखाई जानी चाहिए तांकि वे भविष्य की आर्थिक चुनौतियों के लिए तैयार रह सकें। ‘नानी से बचत की सीख’ कहानी में आशु अपनी नानी के आमदनी के सीमित स्रोतों के विषय में तो जानता था फिर भी उसे अचरज इस बात से होता था कि नानी अपनी और हम सभी जरूरतों को कैसे पूरा कर लेती है। “बेटा जिंदगी में जो अपने पास आई लक्ष्मी को सोच समझ कर उपयोग में लाता है वह हमेशा जिंदगी में सफल होता है।“5 आशु ने नानी की सिखाई यह बचत की सीख गांठ बांध ली और भाई के विवाह में खुद के पैसों से उपहार देकर वह बहुत खुश हुआ। जिस प्रकार बूंद बूंद से सागर भरता है उसी प्रकार व्यक्ति को दुनियादारी में दिखावे के चक्कर में ना पड़ कर फिजूलखर्ची पर नियंत्रण करना चाहिए।

 लेखक विकास बिश्नोई एक प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में शब्दों के द्वारा अपनी संवेदनाओं को बहुत ही बेहतरीन ढंग से संजोया है। लेखक ने समय सापेक्ष विषयों को बदलते वर्तमान परिदृश्यों के संदर्भ में बाखूबी प्र‌स्तुत किया है। उनकी कहानियों की विषय वस्तु जीवन मूल्यों से अनुप्राणित हैं जोकि बच्चों में ज्ञान संवर्धन के साथ-साथ नैतिक विकास की ओर भी उन्मुख हैं।

 संदर्भिका-

बाल साहित्य के प्रतिमान, डॉ नागेश पपांडेय ’संजय’, पृष्ठ 10

विकास बिश्नोई, आओ चले उन राहों पर, श्राद्ध, फरीदाबाद: शब्दाहुति प्रकाशन, पृष्ठ 82-83

वही, आदत से मजबूर, पृष्ठ 64

वही, मोबाइल है ना,  पृष्ठ 19

वही, नानी से बचत की सीख, पृष्ठ 16

डॉ. रश्मि शर्मा, 

सहायक प्राध्यापक , हिंदी विभाग

पं. मोहन लाल एस.डी.कॉलेज फतेहगढ़ चूड़ियां,

 जिला गुरदासपुर, पंजाब।

ई मेल sharmarashu4@gmail.com


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