कविता -अभिव्यक्ति का अंतस्

अभिव्यक्ति का अंतस्

आहूत हो रही है
भाव की अंगडा़ई
मन की खामोश और गुमसुम परछाई में
कि कहीं कोई चेहरा…
चेहरे की रंगत
कविताओं में हिलकोरे लेती
मुझमें ही डूबती जा रही है
बड़ी आंत से छोटी आंत में
कुंडली के ऊपर फन पटककर…
पर क्या आप विश्वास करेंगे?
कतई नहीं…
क्योंकि मैं मनुष्यों की झोली में
बंदरों और बंदरगाहों का खज़ाना हूँ,
जिसमें दिल भी है और दिल्ली भी….
मगर नजरें हैं कि टिकती ही नहीं..

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भास्कर दत्त शुक्ल  बीएचयू, वाराणसी
भास्कर दत्त शुक्ल
 बीएचयू, वाराणसी

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