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Laghukatha mere hisse ki dhoop by rupam

लघुकथा मेरे हिस्से की धूप तमाम तरह के बहस-मुबाहिसे होने के बाद भी उसका एक ही सवाल था- तो तुमने …


लघुकथा

मेरे हिस्से की धूप

Laghukatha mere hisse ki dhoop by rupam

तमाम तरह के बहस-मुबाहिसे होने के बाद भी उसका एक ही सवाल था- तो तुमने आखिरकार तय कर ही लिया ।

मैंने कहा – हां।

इस उलझन से अभी कहां उबर पाई थी कि मां का फोन आ गया। मैंने फ़ोन उठाया। उनका भी यही सवाल- कब आ रही ?? सवाल का जवाब तो मेरे पास पहले से ही था, लेकिन मैं न जाने क्यूं जवाब देने से कतरा रही थी। सोच रही थी चुप रह जाने पर शायद उनका सवाल बदल जाये।

लेकिन माँ के द्वारा खींची गई रेखा, लक्ष्मण रेखा से भी अधिक शक्तिशाली थी, उसे तोड़ना मेरे लिए मुश्किल भरा काम था। आखिरकार, जो जवाब वह चाह रही थी वह मिल गया और मैं घर आ गई । आने पर नाराजगी सबके चेहरे पर साफ-साफ झलक रही थी। जिसे मिटा पाना नामुमकिन था।

खैर, दस दिन बीत जाने पर मैंने अपने को दिनचर्या में ढालने की कोशिश की। फिर सुबह से शाम तक वही किताबें, नहीं तो दोस्तों से दो-चार बातें। आखिर घर है भाई- मर्यादा नाम की कोई चीज होती है- दोस्तों से भी बात करते हुए अगर किसी ने देख लिया, तो क्या बबाल होंगे, ये तो कोई नहीं जानता, ऊपर से सवालों की बौछार अलग।

तमाम क्रन्तिकारी विचारों को रखने वाले समाज में भी आप खुल कर किसी से कोई बात साझा नहीं कर सकते। ख़ैर, छोडिए इन बातों को। सब कुछ ठीक-ठाक चल ही रहा था कि एक दिन मन में अचानक स्वाभाविक सवाल पैदा होने लगा।…घर से शहर भेजना, शहर एक बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ाना और तमाम खर्चे को उठाने के बाबजूद भी उसी समाज में खप जाने का उपदेश क्यों..? कुछ निर्णय लेने की स्वतंत्रता क्यों नहीं..? सवाल का उत्तर खोज ही रही थी कि पापा ने आवाज लगाई- अरे, कभी तो धूप में भी बैठ लिया करो। मां की फिर वही बात कि इतना कौन पढ़ता है?

बस मेरा क्या! मैं भी एक आधुनिक मशीन की तरह, जो अपनी हर संवेदना को नजरअंदाज करती है, बाहर निकली और धूप लेने लगी।

– रूपम 

बेगूसराय बिहार


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