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story, कहानी

Kahani khamosh cheekh by chandrhas Bhardwaj

ख़ामोश चीख सुधीर अपने आवास पर पहुँचे तो शाम के सात बज गए थे । रघुपति दरवाजे पर खड़ा था …


ख़ामोश चीख

Kahani khamosh cheekh by chandrhas Bhardwaj

सुधीर अपने आवास पर पहुँचे तो शाम के सात बज गए थे ।

रघुपति दरवाजे पर खड़ा था । अंधकार घना हो चुका था । पूस का महीना । आज फिर सुधीर ने दुष्कर्म पीड़िता रूद्रा को अपना खून दिया था । शरीर में कमजोरी महसूस हो रही थी । शांता ऐसा नहीं चाहती थी । इससे सुधीर का मन अशांत था । इस परिवर्तन का कारण उसकी समझ में नहीं आ रहा था । जब यह घटना घटी थी तो रूद्रा को न्याय मिले इसके लिए शांता ने अपने संगठन “सन्मार्ग” के बैनर तले बड़े- बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया था । दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग उतर गए थे । दो दिन पहले शांता ने अपना शयन-कक्ष बदल लिया था । आज रघुपति ने एक पत्र हाथ में दिया ।

पत्र पढ़ने के बाद सुधीर अविचल बैठे रहे । अतीत के लंबे रास्ते कभी प्रकाशित होते तो कभी अंधकार से भर जाते । रघुपति भोजन के संबंध में जानकारी लेने आया । सुधीर ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । रघुपति से कुछ भी छुपा नहीं था । सुधीर पर करूण दृष्टि डालकर वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गया । उसके मन में बहुत सी बातें आ जा रही थीं । इन घटनाओं को वह देखता रहता था । हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं था । जिन घटनाओं पर कोई वश नहीं मन और हृदय उससे भी दुःख में डूब जाते हैं ।

रात्रि के आठ बज गए । निस्तब्धता गहरी होने लगी । रूद्रा के मलिन मुख पर बड़ी ही कठिनाईयों से हास्य की तरंगित रेखाओं को देखकर जो बड़ी- बड़ी योजनाएँ बनी थी अब प्रतिक्षण रात्रि के कोलाहल की तरह नेपथ्य में चली जा रही थी । घड़ी की सुई रात्रि के दस, ग्यारह और बारह बजे की सूचना देने के बाद आगे बढ़ने लगी थी । रात ढ़लान पर थी । शांता का पत्र संक्षिप्त था । सुधीर एक बार फिर पत्र पढ़ने लगे । पढ़ने के बाद एक दृष्टि शांता के कक्ष पर डालकर वे शांता को पत्र लिखने लगे ।

प्रिय शांता ,

सुखी रहो । तुम्हारा पत्र मिला । रात्रि ढ़लने के बाद भी जब मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सका तो तुम्हारे अनगिनत लेखों से ही संबल मिला । तुमने मुझसे कभी कहा था “निर्णय पर पहुँचे बिना जीवन में लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता है ।” इसी ने मुझे बल प्रदान किया । मैं तुम्हें पत्र लिखने बैठा हूँ । जानता हूं कि अब तुम कभी वापस नहीं आओगी । जानता हूं कि मैं तुम्हें खो चुका हूं ।

मेरे इस पत्र को तुम अपने पत्र का जवाब नहीं समझना । मुझमें इतनी प्रतिभा और समझ नहीं इसलिए अपने अरमानों के सभी रंग तुम्हें समर्पित कर दिया था । तुम्हारे अनगिनत आलेख , विभिन्न मंचों से देश- विदेश में की गई तुम्हारी परिचर्चाएं , तुम्हारी कई पुस्तकें मेरे सामने खुल गई हैं । तुमने जो भी निर्णय लिया होगा सोच समझ कर ही लिया होगा ।

तुमने अपने पत्र में लिखा है , कोई कब-तक मध्यधारा में स्थिर रहेगा । वह लौट जाएगा या उसपार जाने का संकल्प लेगा । हमने उसपार जाने का निर्णय लिया है । तुमने यह भी लिखा है कि असहमति के साथ दूर तक की यात्राएँ करना संभव नहीं होता है ।

शांता ! मुझे स्मरण नहीं तुम्हें किसी काम से रोका हो । मैं तुम्हारे इस विचार से भी सहमत हूं कि बड़े काम करने के लिए किसी के साथ की जरूरत नहीं पड़ती है । तुम्हारी प्रतिभा का कायल मैं ही नहीं संपूर्ण महाविद्यालय रहा है । मुझे कौन जानता था ‘ मैं पीछे के बैंच पर सिर झुकाए बैठा रहता था । तुम्हें याद ही होगा , प्रिंसिपल ने एक दिन हिन्दी साहित्य के वर्ग में ‘उसने कहा था’ कहानी के लेखक का पूरा नाम पूछा था । कहीं से भी कोई उत्तर नहीं मिला तो मैंने उठकर कहा था ‘श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी !’ लेखक की बाकी कहानियों का नाम क्या है ? इसपर मैंने कहा था ‘सुखमय जीवन’ और ‘ बुद्धु का काटा’ ! मेरे उत्तर पर प्रिंसिपल बहुत खुश हुए थे । इस घटना के बाद तुम्हें जब भी अवसर मिलता , पूछ बैठती ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ एक दिन मैंने हिम्मत जुटाकर कहा , ‘हाँ हो गई ।’ तुमने फिर पूछा था ‘ अरे किससे ?’ मैंने कहा था , ‘ शांता से । तुम मुझे बहुत देर तक देखती रही थी। ऐसी दृष्टि मैंने पहले कभी नहीं देखी थी । संसार का सारा सौन्दर्य उसमें भरा था । उस सौन्दर्य को एकांत में समझने का प्रयास करता रहा था । मैं एक दिन साइकिल लेकर तुम्हारे घर के सामने से जा रहा था । तुम तीर की गति से कहीं से आकर मुझसे टकरा गई । मैं गिर पड़ा । अभी सँभला भी नहीं था कि तुम मेरा हाथ पकड़ कर घसीटती हुई अपनी माँ के पास ले जाकर बोली , माँ ! देख लो , पसंद है न !’

रात का एक बज गया था । थोड़ी देर बाद घड़ी की घड़घड़ाहट बंद हो गई । रात्रि का तापमान तेजी से गिरने लगा था । रघुपति दरवाजे पर बैठे – बैठे ही सो गया था । सुधीर उठकर अपना कम्बल रघुपति के ऊपर डालकर फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गए ।

बहुत सी घटनाएं सुधीर के स्मृति पट पर उभरने लगी । वे फिर लिखने लगे …….. मैं नहीं जानता तुमने मुझसे विवाह का फैसला क्यों किया ? मेरे पूछने पर तुमने कभी कहा था , तुम्हारे संपूर्ण व्यक्तित्व में सादगी का शीतल प्रकाश भरा है , जो अब मुश्किल से किसी पुरुष में मिलता है । स्त्री के लिए इससे अधिक मूल्यवान और कुछ नहीं हो सकता है ।

तुम कॉलेज में होने वाले वाद- विवादों में प्रमुखता से भाग लेती थी । स्त्री विमर्श , नारी सशक्तीकरण , आज की नारियाँ जैसे विषयों पर अपनी बातें मजबूती से रखती थीं । कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहांँ तुम नहीं थीं । स्नातक के बाद तुम्हारी इच्छा को देखते हुए तुम्हारा नामांकन दिल्ली विश्वविद्यालय में करवा दिया । तुम्हारी प्रतिभा वहाँ तेजी से निखरने लगी । तुमने वहाँ से पत्र लिखा था …… सुधीर मुझे आकाश मिल गया है । सम्पूर्ण आकाश स्त्री की चीखों से भरा हुआ है । तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन चीखों के लिए पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी कम जिम्मेदार नहीं । मैं उन चीखों को समझती हूँ । उन्हें मेरी जरूरत है । भारतीय नारी को विकृत करने का वैश्विक षड़यंत्र चल रहा है । मैं इसका विरोध करूँगी । मैं उन स्त्रियों की आवाज बनना चाहती हूँ ।

थोड़े ही दिनों में तुम देश की महत्त्वपूर्ण पत्र- पत्रिकाओं में छा गई थी । स्त्री संबंधी तुम्हारे विचारों को व्यापक समर्थन मिल रहा था । तुम्हारे लेखों में पुरुषों के प्रति वैमनस्यता नहीं रहती थी । तुम उन स्त्री लेखिकाओं से भिन्न थी जो राजनीति में पैठ बनाने के लिए स्त्री के पतन और प्रताड़ना के लिए केवल पुरुषों को ही दोष देती रहती हैं । विदेशी धन के बल पर पुरुषों की आलोचना कर भारतीय स्त्रियों के पतन का मार्ग प्रशस्त करते रहती हैं ।

इसे देखकर मेरी प्रसन्नता की सीमा नहीं थी । मैं अधिक से अधिक ट्यूशन कर तुम्हारे लिए पैसों का प्रबंध करने लगा । इसके बाद जो समय बचता उसमें तुम्हारे लेखों को लेकर मैं अपने मित्रों को दिखाता । मित्र मेरी व्यग्रता पर हँसते थे । मेरी दिनचर्या तुम्हारे चिंतन से प्रारंभ होती और उसी पर ख़त्म होती । कभी इसपर विचार नहीं किया कि तुम मुझे स्मरण करती हो या नहीं ! मेरे पास इतना समय भी नहीं था , सच तो यह थी कि उतनी समझ भी नहीं थी । समय और स्वप्न सभी तुम्हें दे दिया था ।

घड़ी में आवाजें होने लगी । रात्रि के दो बज गए । बहुत से शब्द, चरित्र आपस में टकराकर बिखर गए । थोड़ी देर बाद जब वो व्यवस्थित हुए तो सुधीर फिर से लिखने लगे ………. तुम्हारी नियुक्ति उसी महाविद्यालय में हो गई । तुमने पत्र लिखकर अविलंब मुझे बुलाया । दिल्ली में एक घर देखकर तुमने पसंद कर लिया था । उसके लिए पैसों की व्यवस्था करनी थी । तुम्हारे आने के बाद माँ को पक्षाघात हो गया था । तुम्हें इसकी सूचना नहीं दी थी कि तुम कहीं विचलित न हो जाओ । छोटा भाई माँ की सेवा में दिन-रात लगा रहता था और मैं दिन-रात पैसों की व्यवस्था में ! सविता पैसे की कमी के कारण मैट्रिक की परीक्षा नहीं दे सकी थी । कुल दो बीघा जमीन में से एक बीघा हमने बेच दी । मुझे तुम पर स्वयं से भी ज्यादा भरोसा था । उस दिन स्टेशन पर रघुपति मिल गया था । जिस माँ को उतावलेपन में चलने के समय देख भी नहीं पाया था उसी माँ ने मेरे पीछे रघुपति को दौड़ा दिया था । मेरे स्टेशन पहुँचने से पहले वह मेरी प्रतीक्षा करता मिला था । तीन कोस की दूरी वह दौड़ते- दौड़ते ही तय किया था ! वह जोर- जोर से हाँफ रहा था । उसे सामने देख मुझे अपने पर लज्जा हो आई थी ।लौट जाने की इच्छा हुई । मैं कुछ निर्णय कर ही पाता कि तुम्हारे पत्र की वह चीख जो संपूर्ण आकाश में तुम्हें गूँजती सुनाई पड़ती थी मेरे समीप तक आ गई । मैं दिल्ली वाली गाड़ी में रघुपति के साथ बैठ गया ।

शान्ता! संपूर्ण यात्रा में तुम्हारे लेखों को पढ़ता रहा । मेरे आह्लाद की सीमा नहीं थी । एक लेख में तुमने लिखा था ‘ नारी पुरुषों के समान स्वतंत्रता क्यों चाहती है ? शायद इसलिए कि स्वच्छंदता पूर्वक वह अपने सौंदर्य का उपभोग कर सके ! भारतीय नारी अपने पिछड़ेपन के लिए स्वयं जितना उत्तरदाई है उतना पुरुष नहीं । बातों में घात- प्रतिघात की प्रवृत्ति से जब-तक वह मुक्त नहीं होगी, अपना विकास नहीं कर सकेगी । नारी का विकास पुरुषों से भिन्न होगा । वह अपने विकास के लिए सामाजिक मर्यादा और अनुशासन कभी नहीं तोड़ सकती है । ऐसा कर वह सर्वनाश को ही आमंत्रण देगी । समाज में उसकी सत्ता सर्वोपरि ही नहीं बहुआयामी भी है ।

हजारों किलोमीटर की यात्रा में तुम्हारे विगत दिनों के लेख ही संबल बने । सुधीर कुछ आगे लिखते उसी समय रात्रि के तीन बजने की घोषणा हुई । एक दृष्टि रघुपति पर डालकर सुधीर फिर लिखने लगे । …… तुम्हारे लेखों पर आधुनिक नारीवादी लेखिकाओं ने आपत्ति की थी । तुमने लिखा था ‘ मैं उनसे कहना चाहती हूँ कि जो नारी की प्रताड़ना और पिछड़ेपन के लिए रात-दिन पुरुषों को दोष देते रहती हैं वह स्त्री की भूमिका पर कुछ क्यों नहीं बोलती हैं ?’ वह देखें कि सहमी , भयभीत ,अल्पव्यस्क लड़कियों की प्रताड़ना में हाथ में डण्डा लिए कितने पुरुष और उनके बाल खींचती कितनी प्रौढ़ स्त्रियाँ हैं । उन स्त्रियों में कहीं से भी दया , ममता , स्त्रीत्व दिखलाई देती है ? बालिका सुधार गृह या (शेल्टर हाऊसों) में भी बालिकाओं की सिसकी और बेबसी में क्या स्त्रियाँ बिल्कुल निर्दोष होती हैं ? तुमने बिहार के एक सुधार गृह की चर्चा भी की ।

सुधीर थोड़ी देर के लिए ठहर गए । ऊँगलियों की पकड़ मजबूत थी । वे फिर से लिखने का प्रयास करने लगे । उसी समय चार बज गए ।

जाड़े की रात । शांता के कक्ष से हटकर आँखें फिर पत्र को देखने लगी । थोड़ी देर बाद वे फिर से लिखने लगे……… दिल्ली आकर मैंने देखा कि तुम एक हस्ती बन चुकी हो । रात दिन की व्यस्तता तुम्हें राजनीति की ओर धकेल रही थी । तुम्हारे लेख देश ही नहीं विदेशी पत्रिकाओं में भी छपते थे । बुद्धिजीवियों के द्वारा आयोजित आयोजनों में तुम्हें प्रमुखता मिलने लगी थी । मैंने सन्मार्ग का काम सँभाल लिया । उसमें विदेशों से काफी धन प्राप्त हो रहे थे । मैं हैरान था । उसी बीच कई पुस्तकें तुमने लिखीं । सभी चर्चा में रही । मैं रात दिन सन्मार्ग के काम में लगा रहता था । इसी क्रम में दलित बस्ती की रूद्रा नाम की लड़की सन्मार्ग से जुड़ गई । उसमें उमंग थी प्रतिभा थी । मैंने उसे पढ़ाने का संकल्प लिया । तुमने भी सहमति दे दी ।

उस दिन जब तुम भारतीय नारी की लालसा विषय पर देशी- विदेशी डेलीगेट्स को संबोधित कर चली गई थी , उसके बाद रूद्रा को उसके घर तक छोड़ने के लिए मैं जा रहा था किन्तु उसने मुझे रोक दिया। वह अपने आप को सिद्ध करना चाहती थी । उसी मंच से रूद्रा ने भी भाषण दिया था । उसकी सोच , उसका लावण्य, उसके लफ्ज उस छोटे से कार्यक्रम में सबको प्रभावित किए थे । रास्ते में सूने पथ पर कुछ लोगों ने उसका अपहरण कर लिया था । दूसरे दिन वह दुष्कर्म पीड़िता के रूप में एक निर्जन जगह पर मिली । देश ही नहीं विदेशों से भी दुष्कर्मियों को पकड़ने की आवाजें उठीं । तुमने भी सारी शक्ति लगा दी थी । दुष्कर्मी पकड़ा गया । तुम्हारे प्रयास की काफी प्रशंसा हुई । उसके बाद हम लोगों का काम काफी बढ़ गया । विदेशी संस्थाओं ने हमारी संस्था पर विश्वास किया । अब पैसे की कमी नहीं रही । तुमने राजनीति में प्रत्यक्ष भाग लेना शुरू किया और चुनाव लड़ने का फैसला किया । मैं उद्विग्न हो गया ।

सुधीर पत्र लिखते -लिखते ठहर गए । पाँच बजने की घोषणा हुई । अंधकार उसी तरह व्याप्त था । रघुपति भी जाग रहा था । शांता के कक्ष पर आँखें गईं । मन में आया , शांता अब कभी लौटकर नहीं आएगी । मन कुछ समय तक विचलित रहा । सुधीर की आँखों के सामने सविता आकर खड़ी हो गई । मन आद्र हुआ । थोड़ी ही देर में अपने से छह साल छोटी बहन से मुक्त होकर वे लिखने लगे । तुम चुनाव जीत गई । इसमें पैसा पानी की तरह बहा । मैं दुःखी था । यह तुम्हारे सिद्धांत और संकल्प के विरुद्ध था । कुछ समय बाद आरोपी को जमानत मिल गई । मुझे बाद में जानकारी मिली कि चुनाव में जो खर्च हुआ , उसी ने वहन किया था । उससे तुम्हारी नजदीकी बढ़ती जा रही थी । मैंने आपत्ति की तो तुमने कहा , मैं अब राजनीति में हूँ । मैं हतप्रभ रह गया । एक रात तुम विलंब से आई । अब तुम बदल रही थी , बहुत तेज गति से । एक रात तुम नशे में आई । मेरा धैर्य टूट गया । मैंने पूछा , ‘ अभी तक तुम कहाँ थी ? तुमने निर्भिकता से कहा , ‘ जहाँ से सभी रास्ते खुलते हैं।’ इसे तुमने स्पष्ट करते हुए कहा था , कक्ष में बैठकर संकल्प करना , सत्य- असत्य की व्याख्या करना , सामाजिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्राण की बाजी लगा देने की बातें करना बहुत आसान होता है । वैश्विक जगत में इसके साथ ही प्रतिकूल असीम ताकतों से जब अचानक सामना होता है तो एक नया सत्य उभरता है । मैं उसे भी आत्मसात कर रही हूँ । जीवन को अतीत से लिए गए संकल्पों पर बलि नहीं चढ़ा सकती । सभी कुछ प्रतिक्षण बदल रहा है , एक मैं ही क्यों स्थिर रहूँ ? जो लोग अपने संकल्प पर आजीवन चलते रहते हैं उनमें से मैं नहीं हूँ । यही न तुम कहना चाहते हो कि मैं मार्ग से भटक गई हूँ । नहीं , मैं खुद मार्ग बनाना जानती हूँ । अपने पीछे आने के लिए मैं किसी से आग्रह भी नहीं कर रही हूँ । मुझे क्षमा करना ।

कुछ ही समय के अंतराल में दो घटनाएँ घटी । मेरे दैनिक आपत्ति से तुमने अपना शयन-कक्ष बदल लिया । शांता ! तुम्हें नारी सशक्तीकरण के लिए “एशिया वूमेन सोसायटी” की ओर से पुरस्कार मिला।

अब मेरे जिम्मे दो काम बचे । रूद्रा को देखने अस्पताल जाना । दूसरा काम स्वयं का अवलोकन करना जिसमें मैं अपने से प्रायः प्रश्न करते रहता , क्या मैं वही सुधीर हूँ जिसे देखकर तुमने कहा था, ‘ स्त्री की सबसे बड़ी साधना पुरुष हृदय के तल में उतरकर अचेतन होकर पूरे विश्वास के साथ सो जाने का सौभाग्य प्राप्त करना ही है। मैं उसी सौभाग्य की अटूट आकांक्षा लेकर तुम्हें समर्पित हूँ । स्त्री जीवन का सौंदर्य पुरुष प्रेम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

सुबह के छह बज गए । रघुपति वैसे ही बैठा था । बाहर अभी भी कुहासा जमा हुआ था । सुधीर फिर से पत्र लिखने लगे , शान्ता ! रात बीत गई है । सुबह नहीं हुई है । ऐसा कभी- कभी ही होता है । तुम्हारी अनिच्छा के बाद भी आज रूद्रा को दूसरी बार अपना खून देने गया । डॉ. ने कहा , अब वह बच जाएगी। जब मैं वहाँ से चलने लगा तो रूद्रा रो पड़ी । उसने धीरे से कहा , सर! मैं नहीं बचूँगी । कुछ लोग मेरी हत्या कर देना चाहते हैं । मेरे प्रश्न पर उसने जो कहा उसे सुनकर कुछ समय के लिए मैं संज्ञाशून्य हो गया …..! वहाँ से जब मैं चलने लगा तो उसने कहा , सर ! आप बहुत अच्छे हैं । बहुत ही अच्छे ।

घर आने पर रघुपति ने तुम्हारा पत्र दिया जो शायद अंतिम था । सुधीर पत्र लिखते- लिखते ठहर गए । कोहरे को भेदकर बहुत से लोगों की आवाजें आ रही थी । रघु सतर्क हो गया । समय- असमय देखते नहीं । अपनी समस्याओं के समाधान के लिए छोटे के यहाँ दौड़ लगा देते हैं । वह इस समय छोटे को किसी भी कीमत पर निकलने नहीं देगा । इतने बड़े शहर में उसके अलावा और है ही कौन ?

बहुत से लोग बरामदे के समीप आकर ठहर गए । रूद्रा की लाश चारपाई पर रखी थी । रूद्रा की मुँदी आँखों में उसका स्वप्न बन्द हो चुका था । दलित बस्ती के सभी लोग रो रहे थे । सुधीर के पास जो रूपए थे, उसने सभी रूद्रा के भाई को दे दिए । रघुपति रो पड़ा । वह रूद्रा को बेटी की तरह मानता था । सभी के जाने के बाद सुधीर विचलित मन से पत्र को पूरा करने बैठ गए । शान्ता! अभी कुछ लोग रूद्रा की लाश लेकर आए थे। तुम्हें जानकारी तो हो ही गई होगी । एक लेख में तुमने सत्य ही कहा था , ‘स्त्री सदियों से चीख रही है!’ पुरुष तो क्या उसे स्त्री भी नहीं समझ पा रही है । कोई तो होगा जो उन चीखों को समझेगा ! इसी विश्वास के साथ पत्र समाप्त करता हूँ ।

सुधीर पत्र को मेज पर रख कर बाहर निकल कर खड़े हो गए । रघुपति से बोले कि जीवन में कभी- कभी ऐसे क्षण आते हैं जब कुछ भी दिखलाई नहीं देता है । क्या करना है और क्या नहीं करना है का निर्णय करना कठिन हो जाता है ।

रघुपति की आँखें भर आईं । उसका भरा- पूरा परिवार है । छोटे के लिए अपने परिवार का स्मरण तक इस महानगर में नहीं किया था । सुधीर का हाथ पकड़ते हुए बोला , छोटे ! माँ के यहाँ चलो ।

माँ का नाम सुनते ही सुधीर के प्राणों की विकलता समाप्त हो गई । वे स्थिर मन से अपने कक्ष के दरवाजे पर ताला लगाते हुए बोले , यात्रा का प्रबंध तुम्हें ही करना है काका । मेरे पास कुछ भी नहीं है । जब दोनों बरामदे से उतरने लगे तो सुबह के सात बजने की घोषणा हुई । कुहासा छँट चुका था ।

चन्द्रहास भारद्वाज
बरौनी
दहिया
बिहार ।।


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