सुपरहिट
मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी मिल जानी चाहिए जनाब
इस बात को 1983 में आई अमिताभ बच्चन की बहुचर्चित फिल्म ‘कुली’ में बहुत अच्छी तरह पेश किया गया था। ‘कुली’ फिल्म बच्चन के लिए लगभग घातक कही जा सके इस दुर्घटना के कारण बहुत चर्चा में रही थी। यह बाक्सआफिस पर सुपरहिट भी इसीलिए रही थी कि अमिताभ बच्चन इसमें शूटिंग के दौरान जख्मी हो कर मरते-मरते बचे थे।
26 जुलाई, 1982 को बेंगलुरु यूनिवर्सिटी कैंपस में सहकलाकार पुनीत इस्सर के साथ की फाइट सीन में टेबल का कोना उनके पेडू में इस तरह जबरदस्त रूप से लगा था कि छह महीने तक उन्हें इलाज कराना पड़ा था। मुंबई के ब्रीच केंडी अस्पताल में अमिताभ बच्चन कुछ मिनटों के लिए ‘क्लीनिकली डेड’ भी हो गए थे। उन दिनों प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) से ले कर आमजनता तक सभी ने उनके जीवनदान के लिए अनेक प्रार्थनाएं की थीं।
छह महीने बाद जनवरी महीने से फिल्म के निर्देशक मनमोहन देसाई ने ‘कुली’ को शूटिंग वहीं से शुरू की थी। जिसमें अमिताभ बच्चन की जानलेवा दुर्घटना हुई थी, छह महीने बाद फिल्म रिलिज हुई तो थिएटरों में परदे पर उस शाट को स्थिर कर दिया गया था, जहां हीरो के पेट में लगा था। कहने की जरूरत नहीं कि फिल्म जबरदस्त हिट हुई थी।
मूल स्क्रिप्ट में अमिताभ बच्चन की फिल्म के विलन कादर खान की गोली से मौत हो जाती है। पर दुर्घटना के बाद देश के लोगों में अमिताभ के लिए इतनी अधिक सहानुभूति थी कि मनमोहन देसाई ने इसका अंत बदल दिया था और हीरो को हाजी अली की दरगाह में अल्लाह के नाम पर छाती पर अनेक गोलियां खाने के बावजूद जिंदा होते दिखाया था। अंत में इकबाल स्वस्थ हो कर रेलवे अस्पताल की बालकनी में कुलियों के सामने उस तरहआता है, जिस तरह अमिताभ ब्रीच केंडी अस्पताल में स्वस्थ हो कर प्रशंसकों के सामने आए थे।
‘कुली’ फिल्म की रील-लाइफ और रियल लाइफ मिल गई और उसमें सिनेप्रेमियों का समग्र ध्यान फिल्म के हीरो इकबाल खान पर ही रहा। पर इसमें फिल्म की कुछ बारीक बातें नजर के बाहर रह गईं। जैसेकि ‘कुली’ फिल्म में कम्युनिस्ट विचाधारा का हैवी डोज था। मनमोहन देसाई मसाला फिल्मों के लिए जाने जाते थे।फिल्में बनाने का उनका मुख्य उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन कराना और पैसा कमाना था।
फिर भी उन्होंने फिल्म ‘कुली’ में पूंजीपतियों और श्रमजीवियों के बीच संघर्ष को मार्मिक रूप से पेश किया था। अमिताभ ने अधिकतर फिल्मों में एंग्री यंगमैन अथवा वनमैन की भूमिका अदा की थी। पर मनमोहन देसाई ने ‘कुली’ में पहली बार उन्हें वर्किंग क्लास हीरो के रूप में पेश किया था। एक तो वह अनाथ था। उसकी मां सलमा (वहीदा रहमान) के साथ पूंजीपति खलनायक जफर खान (कादर खान) ने अन्याय किया था। इकबाल का पालन-पोषण रेलवे के एक कुली के यहां हुआ था। वह एक कुली के रूप में बड़ा हुआ था और रेलवे प्लेटफार्म पर एक ट्रेन के आने के समय नालायक जफर और उसके बदतमीज बेटे विकी (सुरेश ओबेराय) से मुलाकात होती है। इसी दृश्य में अमिताभ की पहली बार एंट्री होती है।
यह दृश्य बहुत महत्वपूर्ण था। इसी पहले ही दृश्य में मनमोहन देसाई ने फिल्म की कहानी के वर्गविग्रह को नाट्यात्मक रूप से पेश किया था। कुलियों की जिंदगी कैसी है, उनका परिचय यहीं से हुआ था। इकबाल उनका नेता था। जफर और विकी पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे। प्लेटफार्म पर ही दोनों वर्गों के बीच संघर्ष होता है। फिल्मी बोलचाल की भाषा में हम जिसे ‘नंबरियां’ कहते हैं, इस टाइटिल की शुरुआत ही अमिताभ के ‘हड़ताल’ के आह्वान से होती है।
पूंजीपति बाप-बेटे एक कुली से बदतमीजी करते हैं और इकबाल के नेतृत्व में प्लेटफार्म पर हड़ताल कर देते हैं। उसी समय इकबाल ने एक यादगार संवाद बोला था, “मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी मिल जानी चाहिए जनाब…” अमिताभ की लार्जर देन लाइफ चारित्र्य के कारण यह संवाद बहुत कम लोगों के ध्यान में रहा होगा। परंतु फिल्म का केंद्रवर्ती विचार इसी में समाया था।
फिल्म के लेखक कादर खान ने इस संवाद को लिखा था। कादर खान पढ़ने वाले लेखक थे। उन्होंने इस्लामिक शास्त्र और कम्युनिस्ट साहित्य अच्छी तरह पढ़ा था। ‘कुली’ फिल्म में कम्युनिस्ट और सूफी परंपरा के तमाम प्रतीकों का खूबसूरती से उपयोग किया गया था। जैसेकि हाजी अली की दरगाह के अंतिम दृश्य में इकबाल ‘शाहदा’ (ला इल्लाहा इल्ल लाह) बोलते-बोलते जफर का पीछा करता है। जफर को धक्का मारते समय इकबाल ‘तदबीर’ (अल्लाहु अकबर) बोलता है। इकबाल की बांह पर कुली का बेज है, उसमें इस्लाम का पवित्र मनंबर 786 है।
उसी तरह इकबाल जब विकी के वैभवी घर में तोड़फोड़ करता है तो उसके हाथ में हंसिया और हथौड़ा होता है। हंसिया और हथौड़ा रशियन क्रांति के समय श्रमजीवियों और किसानों की लड़ाई का प्रतीक था। ‘मदर इंडिया’ नाम की सुपरहिट फिल्म बनाने वाले महबूब खान की फिल्म कंपनी के लोगो में हंसिया और हथौड़ा था। उनकी फिल्मों में परदे पर लोगो उभरता था तो बैकग्राउंड से आवाज आती थी – ‘मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजूर-ए-खुदा होता है।’
मनमोहन देसाई ने इसी प्रतीक का उपयोग कर के ‘कुली’ फिल्म के पोस्टर में हंसिया और हथौड़ा के साथ अमिताभ बच्चन का फोटो लगाया था। बाकी कुली के रूप में उनकी लाल यूनीफॉर्म कम्युनिस्ट क्रांति का रंग था। अमिताभ की दुर्घटना न हुई होती और मनमोहन देसाई ने लोगों को रिझाने के लिए फिल्म का अंत न बदला होता तो श्रमजीवी वर्ग के कल्याण के लिए शहीद हो जाने वाले नायक के रूप में इकबाल अमर हो गया होता।
मजे की बात तो यह है कि फिल्म ‘कुली’ का निर्माण उस वक्त हुआ था, जब मुंबई में सब से बड़ी मिल हड़ताल हुई थी और दो साल तक चली थी। क्रांतिकारी मजदूर नेता दत्ता सामंत के नेतृत्व में ढ़ाई लाख मजदूरों ने काम बंद कर दिया था। जिसके कारण आठ लाख लोगों पर इसका सीधा असर पड़ा था। इस हड़ताल से मुंबई के सामाजिक और राजनीतिक समीकरण बदल गए थे।
मनमोहन देसाई ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘उन्होंने मुंबई के वीटी स्टेशन पर लाल कुर्ता, सफेद धोती, बांह पर बिल्ला और मुंह में बीड़ी वाला कुली देखा था। वे सभी एक साथ प्लेटफार्म पर बैठते और रात होने पर सभी का पैसा एक चादर पर इकट्ठा कर के सभी को बराबर बांट देते। इन्होंने अमितजी को अमर, अकबर, एंथनी में गुंडा और नसीब में वेटर बनाया था, पर कुलियों को देखने के बाद उन्हें इकबाल का पात्र सूझा था।
एक मजे की बात यह है कि कादर खान ने इकबाल के लिए जो संवाद लिखे थे, वह वास्तव में मोहम्मद पैगंबर द्वारा कही गई बात है। आज से 1450 साल पहले अरब में गुलामों से काम कराया जाता था। तब इस्लाम का पैगाम देने वाले हजरत अली ने लोगों को सलाह दी थी कि ‘मजदूरों की मजदूरी उनका पसीना सूख जाने से पहले अदा कर दो।’ इस्लाम का अध्ययन और खुद भारी गरीबी में बड़े हुए कादर खान ने इस बात को इकबाल के मुंह से कहलवा कर इसे अमर बना दिया था।





