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बातूनी महिलाएं भी अब सोशल ओक्वर्डनेस की समस्या का अनुभव करने लगी हैं

बातूनी महिलाएं भी अब सोशल ओक्वर्डनेस की समस्या का अनुभव करने लगी हैं अभी-अभी अंग्रेजी में एक वाक्य पढ़ने को …


बातूनी महिलाएं भी अब सोशल ओक्वर्डनेस की समस्या का अनुभव करने लगी हैं

बातूनी महिलाएं भी अब सोशल ओक्वर्डनेस की समस्या का अनुभव करने लगी हैं

अभी-अभी अंग्रेजी में एक वाक्य पढ़ने को मिला है कि आई एम सोशयली ओक्वर्ड। आजकल यह वाक्य कुछ अधिक ही सुनने को मिल रहा है। लोग इसे स्वीकार भी करने लगे हैं, साथ ही साथ इससे कभी-कभी परेशानी का भी अनुभव करते हैं। वैसे तो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को बातूनी कहा जाता है। पुरुष जल्दी व्यक्त नहीं होते, जल्दी दूसरों से घुलमिल नहीं पाते, पर महिलाएं आसानी से घुलमिल सकती हैं, इसमें अगर उनकी पसंद के लोग हों तो वहां तो महिलाएं आसानी से दिल खोल सकती हैं। खैर, अब सोशल मीडिया और मोबाइल के युग में यह बात नहीं रही। अब महिलाएं भी सोशयली ओक्वर्डनेस का अनुभव करती हैं। अलबत्त, सोशल मीडिया या मोबाइल का इसमें दोष नहीं है। इसमें हमारी लाइफस्टाइल भी उतनी ही जिम्मेदार है। सच पूछो तो सोशयली ओक्वर्डनेस नौकरी करने वाली महिलाएं अधिक अनुभव करती हैं। एक ऐसे ही छोटे उदाहरण से बात करते हैं। नौकरी करने वाली माएं आप को स्कूल में पीटीएम यानी कि पैरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान ही देखने को मिलती हैं। उस समय उन्हें अनुभव होता है कि उनका बच्चा स्कूल में क्या करता है, डे बाई डे वे इसकी जानकारी नहीं रख पाती हैं। महीने में एक बार स्कूल आना होता है, उस समय बच्चे को रोजाना स्कूल छोड़ने और ले जाने वाली माओं की अपेक्षा उन्हें जानकारी कम होती है। भले ही वह पढ़ाई के मामले में कितनी सजग क्यों न हों, फिर भी हाउसवाइफ मम्मा का जो ग्रुप होता है, उसमें वे घुलमिल नहीं सकतीं। मम्मियां स्कूल के फंकशन में मिलती हैं तो अनुभव होता है कि हाउसवाइफ मम्मी जितनी आसानी से एकदूसरे से इंटरेक्शन कर सकती हैं, उतना इंटरेक्शन वर्किंग मम्मियां नहीं कर सकतीं। तमाम बातों की तो उन्हें जानकारी ही नहीं होती, क्योंकि वे रोजाना तो स्कूल आ नहीं सकतीं। जबकि ऐसा मात्र स्कूल मीटिंग में ही होता है ऐसा नहीं है। ऐसा सामाजिक कार्यक्रमों और सोसायटी की मीटिंगों में भी होता है। घर के मौकों पर भी ऐसा ही होता है।

 क्या है सोशल ओक्वर्डनेस

यह शब्द वैसे तो साइकोलाॅजिकल टर्म्स का है। सोशयली मतलब कि सामाजिक मिलाप, अपने घर के सदस्यों (पति, माता, पिता और बच्चे) के अलावा किसी अन्य से बातचीत करने में घबराहट होना, एंजायटी फील होना, परेशानी का अनुभव होना या मिलनेजुलने पर जल्दी भाग जाने का मन होना, इसे सोशयली ओक्वर्डनेस का अनुभव करना कहते हैं। यहां हम इतने मजबूत सिस्टम्स की बात नहीं कर रहे हैं। यहां सामान्य लक्षणों की बात हो रही है, जो अपनी व्यस्तता के कारण हम अनुभव कर सकते हैं। व्यस्तता के साथ मोबाइल के अधिक उपयोग के कारण भी ऐसा अनुभव होता है। आप विचार कीजिए कि आप किसी से मिल रही हैं, किसी से मिलती हैं तो उसका अभिवादन करती हैं, उसके साथ औपचारिक बातें करती हैं। लगभग पांच से दस मिनट बात करने के बाद जब उस व्यक्ति के साथ अधिक देर तक खड़े होना पड़ता है तो आप को लगता है कि अब क्या बातें करें? आगे क्या कहें? उस समय शायद एक ही बात बारबार रिपीट करें या फिर इधर-उधर देखने लगें या फिर वहां से जाने का कारण ढ़ूंढ़ने लगें। अब दूसरा शस्त्र मोबाइल भी है। किसी से मिलने और औपचारिक बातचीत करने के बाद उसमें लगे रहने का मन होता है, उसमें इंगेज होने का मन होता है। अगर आपको भी ऐसा होता है तो इसे सोशल ओक्वर्ड कह सकते हैं। इसमें एंजायटी या अनइजिनेस न फील हो बस। आप को अमुक समय बाद सामने वाले से क्या बात करनी है यह नहीं सूझता। इसका कारण मोबाइल भी है और अपनी व्यस्तता भी है। आतेजाते हमारा सगे-संबंधियों से मिलना न हुआ हो तो जब मिलते हैं तो अमुक समय बाद अनुभव होता है कि क्या बात करें, क्योंकि हम अपनी रूटीन लाइफ में इतना व्यस्त होते हैं कि अन्य बातों पर ध्यान नहीं दे पाते।

मोबाइल और व्यस्तता दोनों जिम्मेदार

आप सोशियली ऐक्टिव न हों, आप के पास इतना समय ही न हो तो आप अपने आसपास मिलनेजुलने का आयोजन हो रहा हो और उसमें आप का जाने का मन हो और उसमें आप जा न पाएं और फिर जाना हो तो ऐसा अनुभव होता है कि दूसरे लोगों के ग्रुप में कहीं अकेली रह गई हैं। क्योंकि उन लोगों की तरह बारबार एकदूसरे से मिल नहीं सकतीं। कभी-कभार तो ऐसा भी होता है कि आप आते जाते मिल नहीं सकतीं और गेट टू गेदर में जा नहीं सकतीं तो लोग घमंडी का टैग दे देते हैं। सही में यह घमंडीपन नहीं होता। यह बस समय का अभाव होता है, पर हम इस बात को एक्सप्लेन नहीं कर सकतीं। इनके नजदीक रहने वाले लोग यह जानते हैं कि व्यक्ति स्वभाव से अच्छा है, निखालस है। बस उसके पास इतना समय नहीं है कि वह अपनी निखालसता लोगों को बता सकें। कभी-कभार हम कम बोलने वाले लोगों के बारे में भी ऐसी धारणा बना लेते हैं कि यह घमंडी है, पर सच पूछो तो उसके नजदीक जाने के बाद, उससे थोड़ा हिलनेमिलने के बाद हमारी समझ में आता है कि यह व्यक्ति तो बिलकुल ही घमंडी नहीं है।

सोशल ओक्वर्डनेस का अनुभव न हो, इसके लिए क्या करें

नौकरी करने वाली महिलाएं या मोबाइल का अधिक उपयोग करने वाली महिलाएं, जिन्हें इस तरह की सोशल ओक्वर्डनेस का अनुभव होता हो, उन्हें समय-समय पर लोगों से बातें करते रहना चाहिए। भले ही रूबरू न मिल सकें, फोन द्वारा, याद रखे मैसेज द्वारा नहीं, काल कर के काल पर बात करें। फोन द्वारा मित्रता बनाए रखें। इसके अलावा छुट्टी के दिनों में लोगों से मिलेंजुलें। लोगों से जितना मिलेंगी, सोशल ओक्वर्डनेस उतनी ही दूर होगी।

About author

Sneha Singh
स्नेहा सिंह

जेड-436ए, सेक्टर-12

नोएडा-201301 (उ.प्र.) 

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