Follow us:
Register
🖋️ Lekh ✒️ Poem 📖 Stories 📘 Laghukatha 💬 Quotes 🗒️ Book Review ✈️ Travel

lekh, Priyanka_saurabh

पुरस्कारों का बढ़ता बाजार

पुरस्कारों का बढ़ता बाजार पुरस्कारों के बढ़ते बाजार के में देने और लेने वाले दोनों की भूमिका है। देने वाले …


पुरस्कारों का बढ़ता बाजार

पुरस्कारों का बढ़ता बाजार

पुरस्कारों के बढ़ते बाजार के में देने और लेने वाले दोनों की भूमिका है। देने वाले अपने आप खत्म हो जायेंगे अगर लेने वाले न बने। हमें किसी भी पुरस्कार के लिए पैसा देना पड़े तो समझ लीजिये वो पुरस्कार नहीं खरीद है। बात इतनी सी है। फिर हम और आगे क्यों बढे? एनजीओ रजिस्ट्रेशन के जरिये कई चरणों में राशि ऐंठते है या फिर धक्का डोनेशन लेते है। संस्थाएं एक दूजे की हो गयी है। एक दूसरे को सम्मानित करने और शॉल ओढ़ाने में लगी है। सरकारी पुरस्कार बन्दर बाँट कहे या लाठी का दम। जितनी जान-पहचान उतना बड़ा तमगा। ये प्रमाण “बिक्री के लिए” पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं।

प्रियंका सौरभ

आजकल सोशल मीडिया प्लेटफार्म ऐसी पोस्ट्स से भरे पड़े है जिसमें लिखा होता है कि उक्त को ये पुरस्कार (स्वर्ण) मिला है। यह पुरस्कार मिलने पर पुरस्कार प्राप्त करने वाले और देने वाले दोनों बढ़-चढ़कर अपना प्रचार करना शुरू कर देते है। आये दिन सुर्ख़ियों में रहने वाले इन पुरस्कारों कि सच्चाई बेहद निंदनीय है और इनमे से ज्यादातर पुरस्कार (सभी नहीं) पैसे से खरीदे जाते हैं। होता यूं है कि हमारे देश में आज नॉन-गवर्नमेंटल आर्गेनाइजेशन की बाढ़ आ गयी है जो समाज सेवा के नाम पर सरकार से पैसा प्राप्त करते है। इनमे से बहुत से एनजीओ समाज में काम करने वाले या किसी क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति से सम्पर्क करते है। उसको प्रलोभन देते है कि आपकी सेवा काबिल ए तारीफ़ है। और हमारा एनजीओ उनको सम्मानित करेगा। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन से शुरू हुई ये प्रक्रिया उक्त एनजीओ द्वारा पुरस्कार की एवज में लूट का पहला कदम होती है जब किसी व्यक्ति से पुरस्कार रजिस्ट्रेशन के लिए शुल्क ऐंठा जाता है।

किसी एनजीओ या संस्था से पुरस्कार प्राप्त करने की इच्छा अब उक्त व्यक्ति को अपने मोह में फंसा लेती है और चरण दर चरण लूट के रास्ते खुलते जाते है। पहले रजिस्ट्रशन शुल्क, फिर जिला स्तर के विजेता और फिर राज्य स्तर के अवार्डी और अंत में ये प्रक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर रहने और खाने के इंतज़ाम के खर्च के साथ खत्म होती है।

पुरस्कारों की दौड़ में खोकर,
भूल बैठे हैं सच्चा सृजन ।
लिख के वरिष्ठ रचनाकार,
करते है वो झूठा अर्जन ।।
मस्तक तिलक लग जाए,
और चाहे गले मे हार ।
बड़े बने ये साहित्यकार।।

ये बात तो हुई खरीदे गए पुरस्कारों की। अब बात करते है एग्रीमेंट संस्थाओं की। आज साहित्य जगत में बहुत सी संस्थाएं काम कर रही है। जब मैं इन संस्थाओं की कार्यशेळी देखती हूँ या इनके समारोहों से जुडी कोई रिपोर्ट पढ़ती हूँ तो सामने आता है एक ही सच। और वो सच ये है कि किसी क्षेत्र विशेष या एक विचाधारा वाली संस्थाएं आपस में अग्रीमेंट करके आगे बढ़ रही है। ये एग्रीमेंट यूं होता है कि आप हमें सम्मानित करेंगे और हम आपको। और ये सिलसिला लगातार चल रहा है अखबारों और सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरता है। खासकर ये ऐसी खबर शेयर भी खुद ही आपस में करते है। आम पाठक को इससे कोई ज्यादा लेना देना नहीं होता। अब बात करते है सरकारी संस्थाओं और पुरस्कारों की। इनकी सच्चाई किसी से छुपी नहीं। जिसकी जितनी मजबूत लाठी, उतना बड़ा तमगा। सिफारिशों के चौराहों से गुजरते ये पुरस्कार पता नहीं, किस को मिल जाये। किसी आवेदक को पता नहीं होता। इनकी बन्दर बाँट तो पहले से ही जगजाहिर है। आखिर मैंने पुरस्कार की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया है। क्योंकि हाल ही में मेरे से कुछ ऐसे लोगों ने सम्पर्क किया है जिन्होंने ये पुरस्कार जीते हैं और वो ऐसे पुरस्कारों की विश्वसनीयता को लेकर गंभीर आरोप लग रहे हैं। कुछ एक ने तो ये तक कहा कि पुरस्कार वितरण समारोह के आखिरी चरण में आवेदक को महंगे-महंगे स्टॉल खरीदकर विज्ञापन देना पड़ा था। जितना अधिक पैसा खर्च करेगा, उतना बड़ा पुरस्कार।

अब चला हाशिये पे गया,
सच्चा कर्मठ रचनाकार ।
राजनीति के रंग जमाते,
साहित्य के ये ठेकेदार ।।
बेचे कौड़ी में कलम,
हो कैसे साहित्यिक उद्धार ।
बड़े बने ये साहित्यकार।।

सबसे बड़ी बात ये की ऐसे एनजीओ के कारनामों में जो भी चरण दर चरण शुल्क जमा करवाता जाता है। वो उतना ही चमकती ट्रॉफी के नजदीक होता है जिसने भी एक चरण मिस किया या शुल्क नहीं दिया वो इनाम की दौड़ से बाहर हो जाता है। अब ऐसी ट्रॉफी या पुरस्कार को खरीदी कहे या न कहे आप बताइये। कुछ को तो डोनेशन राशि जमा करवाने के बाद ही सम्मानित किया गया था। जबकि किसी ने स्टाल खरीदा और सिल्वर अवार्ड या स्कॉच ऑर्डर ऑफ मेरिट प्राप्त किया। ये प्रमाण “बिक्री के लिए” पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं। ऐसे पुरस्कारों के बढ़ते बाजार में देने और लेने वाले दोनों की भूमिका है। देने वाले अपने आप खत्म हो जायेंगे। अगर लेने वाले न बने। हमें किसी भी पुरस्कार के लिए पैसा देना पड़े तो समझ लीजिये वो पुरस्कार नहीं खरीद है। बात इतनी सी है। फिर हम और आगे क्यों बढे? एनजीओ रजिस्ट्रेशन के जरिये कई चरणों में राशि ऐंठते है या फिर धक्का डोनेशन लेते है। संस्थाएं एक दूजे की हो गयी है। एक दूसरे को सम्मानित करने और शॉल ओढ़ाने में लगी है। सरकारी पुरस्कार बन्दर बाँट कहे या लाठी का दम। जितनी जान-पहचान उतना बड़ा तमगा। ये प्रमाण “बिक्री के लिए” पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं।

देव-पूजन के संग जरूरी,
मन की निश्छल आराधना ।।
बिना दर्द का स्वाद चखे,
न होती पल्लवित साधना ।।
बिना साधना नहीं साहित्य,
झूठा है वो रचनाकार ।
बड़े बने ये साहित्यकार।।

About author 

Priyanka saurabh

प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
facebook – https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/
twitter- https://twitter.com/pari_saurabh

Related Posts

Langoor ke hath ustara by Jayshree birmi

September 4, 2021

लंगूर के हाथ उस्तरा मई महीने से अगस्त महीने तक अफगानिस्तान के लड़कों ने धमासान मचाया और अब सारे विदेशी

Bharat me sahityik, sanskriti, ved,upnishad ka Anmol khajana

September 4, 2021

 भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान और बुद्धिमता का भंडार रहा है – विविध संस्कृति, समृद्धि, भाषाई और साहित्यिक विरासत

Bharat me laghu udyog ki labdhiyan by satya Prakash Singh

September 4, 2021

 भारत में लघु उद्योग की लब्धियाँ भारत में प्रत्येक वर्ष 30 अगस्त को राष्ट्रीय लघु उद्योग दिवस मनाने का प्रमुख

Jeevan banaye: sekhe shakhayen by sudhir Srivastava

September 4, 2021

 लेखजीवन बनाएं : सीखें सिखाएंं      ये हमारा सौभाग्य और ईश्वर की अनुकंपा ही है कि हमें मानव जीवन

Bharteey paramparagat lokvidhaon ko viluptta se bachana jaruri

August 25, 2021

भारतीय परंपरागत लोकविधाओंं, लोककथाओंं को विलुप्तता से बचाना जरूरी – यह हमारी संस्कृति की वाहक – हमारी भाषा की सूक्ष्मता,

Dukh aur parishram ka mahatv

August 25, 2021

दुख और परिश्रम का मानव जीवन में महत्व – दुख बिना हृदय निर्मल नहीं, परिश्रम बिना विकास नहीं कठोर परिश्रम

Leave a Comment