“न लिंग भेद होता न नारीवाद पनपता”
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| Pic credit–Image by YuliiaKa |
“खुली रखो बेटियों के लिए भी एक छोटी सी खिड़की जो आसमान की ओर खुलती हो, परवाज़ दो आज़ादी की, हौसला दो बुलंदियों का, कितनी प्रशस्त लगती है वो लड़की जो मुक्त गगन में उड़ती हो”
नारीवाद यह विश्वास है कि पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए। यह लिंगों की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता का सिद्धांत है। नारीवाद का मतलब ये हरगिज़ नहीं की महिलाएँ मर्दों को पीछे छोड़ना, या नीचा दिखाना चाहती है। नारीवाद का अर्थ है महिलाएँ अपने बल बूते पर आगे बढ़कर अपनी पहचान बनाना चाहती है। घर संसार चलाने में पति के कँधे से कँधा मिलाकर साथ देना चाहती है।
न लिंग भेद होता न नारीवाद पनपता।
स्त्री स्वतंत्रता मर्दों के साथ प्रतियोगिता का नाम नहीं। आज की स्त्री ये जताना चाहती है की वो मर्दों पर निर्भर नहीं। एक भ्रम जो पितृसत्तात्मक वाली सोच ने पाल रखा है उसका खंडन करना चाहती है।
महिलाएं इस प्रगतिशील भारत को विकसित बनाने के लिए हर क्षेत्र में अपना योगदान देती है। फिर भी उन्हें कई बार अलग-अलग रूपों में प्रताड़ित किया जाता है तथा उनके अधिकारों का हनन किया जाता है। आज हर साल किसी भी परीक्षा में महिलाएँ समान रूप से शामिल होती है, तथा कई बार पुरुषों से अधिक अंक भी लातीं है। परंतु कहीं ना कहीं यह भी सच है कि पैतृक सत्ता समाज होने के कारण पुरुषों को ही मान सम्मान दिया जाता है। आज भी कई ऐसे प्रांत है जहाँ बेटियों के होने पर निराशा ज़ाहिर की जाती है, या कोख में ही बेटियों का कत्ल कर दिया जाता है।
हर आगे बढ़ती औरत ये कहना चाहती है कि बस, एक मौका दीजिए औरतें मर्दों से किसी भी पहलू से कमतर नहीं। हर क्षेत्र को संभालने की ताकत और हिम्मत रखती है। अगर मौका मिले तो हर औरत अपना लक्ष्य तय करते सुरक्षित जीवन की नींव रखकर अपनी एकल पहचान बनाने में सक्षम होती है। औरतें मानसिक तौर पर पुरुष के मुकाबले ज़्यादा सशक्त और सहनशील होती है, पर सदियों से थोपी गई कुछ रवायतें कुछ औरतों के पैरों में आज भी बेड़ियाँ डालें पड़ी है।
हकीकत में हर पुरुष को नारिवाद को बढ़ावा देना चाहिए ताकि उनकी बेटियाँ, बहनें और माताएं पूर्वाग्रह से मुक्त हो सकें और हर महिलाओं को अपना खुद का एक मंच मिले, जहाँ से उड़ान भरते आगे बढ़ सकें। बेटियों को बेटों के समकक्ष समझकर हर वो सुविधा दीजिए, समानता दिखेगी तो फ़ेमिनिज़म नाम का शब्द अपने आप समाज से मिट जाएगा। अगर लिंग भेद को बढ़ावा न मिलता तो नारिवाद जन्म ही न लेता। पर बेटियों के साथ सदियों से चला आ रहा अन्याय का सिलसिला आज भी जारी है इसलिए महिलाओं को अपना अधिकार पाने के लिए कभी-कभी विद्रोह का सहारा लेना पड़ता है जिसे फ़ेमिनिज़म का नाम दे दिया गया है। क्यूँ आज भी नारी विमर्श लेखकों की पहली पसंद है? हर तीसरा लेखक स्त्री स्वतंत्रता की हिमायत करते लिखता है, इसका मतलब आज भी नारी प्रताड़ित है, आज भी नारी स्वतंत्र नहीं, आज भी अन्याय और अत्याचार होता है। पर अब इस कथन पर काम किया जाए “बेटा-बेटी एक समान जिसमें है जीवन का सार”।


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