Follow us:
Register
🖋️ Lekh ✒️ Poem 📖 Stories 📘 Laghukatha 💬 Quotes 🗒️ Book Review ✈️ Travel

kishan bhavnani, lekh

सुख़ दुख़ दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव

सुख़ दुख़ दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव सुख़ दुख़ तो अतिथि हैं, बारी-बारी से आएंगे चले जाएंगे – …


सुख़ दुख़ दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव

सुख़ दुख़ दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव
सुख़ दुख़ तो अतिथि हैं, बारी-बारी से आएंगे चले जाएंगे – दोनों नहीं आएंगे तो अनुभव कहां से लाएंगे

सुख या दुख की निरंतरता नहीं होती – सुख और दुख को जिसने समभाव में समझ लिया उसने स्वयं को जान लिया – एड किशन भावनानी

गोंदिया – वर्ष 1971 में आई फिल्म कभी धूप कभी छांव में गायक कवि प्रदीप का मशहूर गीत सुख दुख दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव, कभी धूप तो कभी छांव, ऊपर वाला पासा फेंके नीचे चलते दांव, कभी धूप तो कभी छांव यह गीत आज हर युवा को सुनना चाहिए क्योंकि आज का युवा हमारे देश का भविष्य है और मेरा माननाहै कि वर्तमान चकाचौंध डिजिटल युग और पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से वर्तमान पीढ़ी में दुख, कष्ट,परेशानी से संघर्ष करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती जा रही है। हर कोई चाहता है कि वह सुखों का मालिक बना रहें, दुख उसके पास फटके भी नहीं, परंतु वास्तविकता से दूर युवकों को हकीकत के नजदीक लाकर सुखों और दुखों को एक दूसरे का पर्यायवाची मानने की चर्चा आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से करेंगें हालांकि, अनेक युवा साथी सुख-दुख के चक्रव्यूह को भलीभांति पहचानते भी हैं।
साथियों बात अगर हम सुखों की करें तो मेरा मानना है कि आज हर व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृद्धि अधिक दिखती है और अपनी कम, अपनी उपलब्धि से असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। वह हर तरह से सुखी और संपन्न होने पर भी दुखी और दरिद्र प्रतीत होता है। इसी कारण समस्याओं से भी घिरा रहता है। सुखी होने का बहुत सरल फामरूला है-संतुष्ट होना।
साथियों बात अगर हम दुखों की करें तो, जीवन में जितना कष्ट आएगा, उतना ही हममें सहनशीलता आएगी और हम धैर्यवान होते जाएंगे। धैर्य एक ऐसा गुण है, जो व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है, उसे आगे ले जाता है। उसे संपूर्णता प्रदान करता है। बड़ा दुख उपचार कर देता है सभी छोटे-छोटे दुखों का और असंख्य छोटे-छोटे दुखों के उपचार से प्राप्त सुख असीम सुख में परिवर्तित होकर आनंद ही देता है। दुःख, कष्टों से जूझने की क्षमता का विकास कर देता है।जितना बड़ा दुख, उतना ही क्षमतावान मनुष्य। हम कष्टों और समस्याओं से पलायन कर स्वयं अपने सुखों से दूर होते जाते हैं। असीमित उपभोग द्वारा भी हम अपने दुखों को कम कर लेते हैं। शरीर को जितना अधिक आराम और सुविधाएं देते हैं, वह उतना ही निष्क्रिय और जड़ होता जाता है। परिश्रम अथवा व्यायाम करेंगे, तो थोड़ा कष्ट तो जरूर होगा, पर स्वस्थ शरीर का सुख भी मिलेगा। कम खाएंगे तथा भूख लगने पर खाएंगे, तो भोजन के स्वाद का सुख भी मिलेगा। जो सारे दिन खाद्य-अखाद्य का उपभोग करते रहते हैं, उनके लिए भोजन में स्वाद का सुख कहां? इस प्रकार दुख को सहन करने से हमारी ऊर्जा जागती है। हमारी क्षमताओं का विकास होता जाता है।
साथियों बात अगर हम सुख-दुख की करें तो, जब जीवन में सुख आता है हम सुखी हो जाते हैं और जब दुख आता है तो हम दुखी हो जाते हैं। सोचना यह है कि हमारा अपना क्या योगदान रहा। जैसे वे आए हम वैसे हो गए। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने एक नई स्थिति हमें सौंपी है- आनंद। आनंद में हमारी भूमिका आरंभ हो जाती है। दुख कभी किसी के जीवन में कम नहीं होंगे, लेकिन जो आध्यात्मिक व्यक्ति होते हैं वे समझ जाते हैं कि दुख आए तो दुखी नहीं होना है। दुख का आना और हमारा दुखी होना इसमें हम जितना भेद कर देंगे, जितनी दूरी बना देंगे, उतने ही हम आनंद के निकट चले जाएंगे। सुख आता है तो मनुष्य अहंकार में डूब जाता है, दुख आता है तो तनावग्रस्त हो जाता है। ये दोनों ही चीजें भीतर से पैदा की गई हैं।
साथियों बात अगर हम सुख दुख के समान भाव की करें तो अनन्तानीह दुःखानि सुखं तृणलवोपमम् ।
नातः सुखेषु बध्नीयात् दृष्टिं दुःखानुबन्धिषु ॥
इस जगत में दुःख अनंत है और सुख तो तृण की तरह अल्प ! इसलिए जिसमें सुख के पीछे दुःख आता है वैसे सुखमें इन्सान ने आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । एक धर्म में समता (समान भाव) का बहुत ही महत्व है। इसका अर्थ होता है सुख और दुख दोनों ही अवस्थाओं में अस्थिर नहीं होना, साम्य भाव रखना। श्रमण शब्द प्राकृत भाषा में समण से बनता है, जिसका अर्थ होता है जो समता को धारण करे। समणो सम सुख दुक्खो का अर्थ है कि श्रमण वही है, जो सुख और दुख में समान रहे। कष्टों में भी समता भाव धारण करने वाला एक महान उदाहरण मिलता है 23 वें तीर्थकर पा‌र्श्वनाथ के जीवन में।
साथियों बात अगर हम मन के भावों की करें तो, किसी भाव के कारण ही अभाव का तथा अभाव विशेष के कारण ही भाव विशेष का महत्व है। मृत्यु, अंधकार, विषमता, विरह अथवा अपमान आदि के उपस्थित होने पर ही जीवन की अमरता, प्रकाश, अनुकूलता, मिलन अथवा मान-सम्मान के भाव की अनुभूति की जा सकती है। इसी प्रकार यदि दुख नहीं आएगा, तो सुख भी नहीं आएगा, क्योंकि दुख की अनुभूति के बाद ही संभव है सुख की अनुभूति। व्यक्ति सुख चाहता है, पर हर व्यक्ति सुखी नहीं रहता। कोई सुखी तो कोई दु:खी है। आखिर सुख और दु:ख क्या है।हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि जो इंद्रियों और मन के अनुकूल हो, वह सुख है और जो प्रतिकूल लगे वह दु:ख है। भगवान हमारे हाथ में रोज सुबह एक सोने का सिक्का देते हैं जिसका हमें दिन भर अपने मन के मुताबिक उपयोग करना है, लेकिन इस सिक्के को कोई सुख खरीदने में उपयोग करता है, कोई दु:ख खरीदने में, तो कोई लापरवाही के कारण बिना सिक्का खर्च किए लौट आता है। भगवान का यह सिक्का हमारे रोजाना के दिन हैं। कुछ लोग बाहरी चीजों में अपना सुख खोजते हैं, लेकिन इस चक्कर में वे दु:ख के जाल में उलझकर रह जाते हैं।
साथियों बातें ग्राम दलाईलामा की प्रेरणा की करें तो, उन्होंने सुखी होने के लिए दूसरों के प्रति संवेदनशील होने की बात कही है। वह कहते हैं कि हमारी खुशी का स्त्रोत हमारे ही भीतर है और यह स्त्रोत दूसरों के प्रति संवेदना से पनपता है। दूसरे की प्रगति के प्रति जलन और ईष्र्या मानवीय दुर्बलता है। इसी दुर्बलता ने न जाने कितनी बार मनुष्य को आपसी नफरत और द्वेष की लपटों में झोंका है, अच्छे-भले रिश्तों में इसी कारण दरारें पड़ती हैं और इसी कारण मनुष्य दुखी व अशांत हो जाता है। वस्तुत: सुख-शांति और आनंद को पाने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। वह स्वयं के भीतर है।
साथियों प्रकृतिवादी विचारक बुद्धि को विशेष महत्व देते हैं परन्तु उनका विचार है कि बुद्धि का कार्य केवल वाह्य परिस्थितियों तथा विचारों को काबू में लाना है जो उसकी शक्ति से बाहर जन्म लेते हैं। इस प्रकार प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन इत्यादि की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं।
अतः अगर हम उपरोक्त विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि सुख दुख दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव सुख दुख तो आते ही हैं बारी-बारी से आएंगे चले जाएंगे दोनों नहीं आएंगे तो अनुभव कहां से लाएंगे। सुख या दुख की निरंतरता नहीं होती, सुख और दुखों को जिसने समभाव से समझ लिय उसने स्वयं को जान लिया।

About author

कर विशेषज्ञ स्तंभकार एडवोकेट किशन सनमुख़दास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
कर विशेषज्ञ स्तंभकार एडवोकेट किशन सनमुख़दास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 


Related Posts

किसका कार्य?-डॉ. माध्वी बोरसे!

November 22, 2021

 किसका कार्य? आज 21वीं सदी में, हम पूरी तरह से दकियानूसी सोच से आजाद हो चुके हैं, फिर भी बहुत

सर्दियां अदरक और हम -जयश्री बिरमी

November 22, 2021

सर्दियां अदरक और हम आयुर्वेद में अदरक के फायदों का वर्णन किया गया हैं ये तो अपने देश में ही

बेमौत मरती नदियां , त्रास सहेंगी सदियां ।-आशीष तिवारी निर्मल

November 22, 2021

बेमौत मरती नदियां , त्रास सहेंगी सदियां । छठ पर्व पर एक भयावह तस्वीर यमुना नदी दिल्ली की सामने आयी,

कोविड-19 से हुई क्षति की रिकवरी -किशन भावनानी गोंदिया

November 22, 2021

 कोविड-19 से हुई क्षति की रिकवरी व समाज की बेहतरी के लिए ज्ञान, धन और आर्थिक संपदा अर्जित करने हेतु

हम और हमारी आजादी-जयश्री बिर्मी

November 22, 2021

हम और हमारी आजादी कंगना के बयान पर खूब चर्चे हो रहे हैं लेकिन उनके  बयान  के आगे सोचे तो

358 दिन के आंदोलन से हुई लोकतंत्र की जीत

November 22, 2021

 किसान एकता के आगे झुकी सरकार, हुई कृषि कानून की वापसी 358 दिन के आंदोलन से हुई लोकतंत्र की जीत

Leave a Comment