विषय- नम्रता और सुंदरता
दो सखियाँ सुंदरता व नम्रता,
बैठी इक दिन बाग़ में।
सुंदरता को था अहम स्वयं पर,
इतराती हर इक बात में।
कहने लगी नम्रता से वह,
देख मैं सबको कितना भाती हूँ।
हो मानव ,प्रकृति और उपवन,
सब पर मैं छा जाती हूँ।
मेरा साथ पाने हर नर नारी आतुर,
दीवाना में कर देती
नयन के रास्ते करूँ ह्रदय को आतुर ,
सबको मतवाला कर देती।
नम्रता मुस्कुरा रही है,
कहती है, सुंदरता को बड़े प्रेम से।
हां सखी मोहे भी तू भाती,
मेरा अस्तित्व दिखता है तुमसे।
मैं चाहती सबको आदर और प्रेम देना,
पर कोई मुझे जाने ना।
जब तक ना रहती संग तू मेरे,
मुझे कोई पहचाने ना।
मेरा नहीं कोई बैर किसी से,
ना द्वेष ना टकराव।
व्यवहार के जरिये में मिलती सबसे,
न देना चाहूँ किसी ह्रदय को घाव।
पर शायद नयनों से कोई,
अस्तित्व को मेरे, नहीं पहचान पाता।
तू नहीं होती जब सखी सुंदरता,
कोई न मुझको सन्मुख लाता।
हो जाती जब अकेली मैं,
तब मित्र शब्द आकर कहते मुझसे,
तो क्या हुआ ,आज सुंदरता नहीं संग तेरे ,
मैं भी तो सखा हूँ तेरा।
तेरे साथ से तो पहचान बनती मेरी,
तेरे साथ से बढ़ता मान मेरा।
नंदिनी लहेजा
रायपुर छत्तीसगढ़
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित
