मैं औरों जैसा नहीं हूँ
आज भी खुला रखता हूँ
अपने घर की खिड़की
कि शायद कोई गोरैया आए
यहाँ अपना घोंसला बनाए।
मैं महसूस करना चाहता हूँ
वो सुन्दर बीते हुए पल
जब चिड़ियाँ अपनी चहचहाहट में
भर देती थीं दिनभर खुशियाँ
ना कोई तनाव, ना ईर्ष्या, घृणा
हर ओर शान्ति की छाया थी।
अब वो सब कुछ खो गया
जैसे खिड़की का घोंसला भी
उजड़ गया, टूट गया।
मैं फिर से पाना चाहता हूँ
वो सुनहरा समय
इसीलिए आज भी
खुली रखता हूँ अपनी खिड़की।
-प्रतीक झा ‘ओप्पी’ (उत्तर प्रदेश)






