रिश्ता अपना
अर्धांगिनी उत्तराधिकारिनी ,
मेरे जीवन की कामिनी ,
बहती आई अंतस्थल में ,
पावन निर्मल गंगा जैसी ।।
गंगा की शुचि दर्पण पर,
मेरी स्मृति के पट पर,
स्वर्ग लोक से चलकर आई,
मेरे साथ निभाने को। ,
चलो मिलकर आकलन करें
कितनी दूरी पर हैं हम ,
कौन कहां पिछड़ा जीवन में,
सबसे नंबर मेरा कम। ।।
चल मिलकर संतोष करेंगे,
जीवन में अब रखा क्या है,
मेरे संपूर्ण समर्पण में ,
तेरा ही प्रतिदान मिला है ।।
आवरण बरन कर चली गई,
छोड़ जिंदगी, कर हमें विकल,
अवसाद नहीं मिटता कोई क्षण,
बचा नहीं अब हम में दम ।।
किसअतीत की पीड़ा को ,
ढो कर लाया हूं जीवन में,
मिटा सकोगी मेरी पीड़ा ,
कैसे इस भवबंधन से ।?
अटूट है मेरा बंधन अपना ,
रिश्ता भी आजीवन का ,
चिंता सदा किया करता हूं,
अपनी ही खुदगर्जी का ।।
मानव मन का विश्लेषण क्या,
बहुत कमी है जीवन में ,
सत्य सदा स्वीकार करें,
आगे भी कोई अपना है। ।।
मौलिक कृति
डॉ हरे कृष्ण मिश्र
बोकारो स्टील सिटी
झारखंड ।






