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उड़ीसा यात्रा -डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव

उड़ीसा यात्रा   रेल सेवा से  31जुलाई 2005 को सेवा निवृत्त होने के बाद मैने सबसे पहले उड़ीसा घूमने का प्रोग्राम …


उड़ीसा यात्रा 

odisa yatra by shailendra srivastav

 रेल सेवा से  31जुलाई 2005 को सेवा निवृत्त होने के बाद मैने सबसे पहले उड़ीसा घूमने का प्रोग्राम बनाया था।

            राजधानी एक्स से हम पहले भुवनेश्वर पहुंचे  औऱ उसके आगे लोकल ट्रेन से पुरी आ गये थे ।यही पहला पड़ाव था ।

       जगन्नाथ पुरी मंदिर से एक कि.मी.दूर समुद्र किनारे गेस्ट हाऊस मे कमरा लिया । फिर हमने  स्नान कर नाश्ता किया ।

        दोपहर एक मारवाड़ी भोजनालय में  खाना खाकर वापस गेस्ट हाऊस आ गये ।।      

      गेस्ट हाऊस सागर के पास होने के बावजूद गर्मी बहुत ज्यादा थी इसलिए दोपहर में आराम किया ।शाम को  सागर किनारे डूबते सूरज का सौंदर्य देखने गये लेकिन निराशा  हुई ।

      अगले दिन सुबह पांच बजे उगते सूर्य का सौंदर्य देखने समुद्र तट पर आये तो निराश हुये क्यों कि समुद्र पूर्व उत्तर दिशा में  था औऱ सूर्य समुद्र के ऊपर से नहीं बगल से उग रहा था ।

    हमने कैमरे से प्राकृतिक सौंदर्य के बीच पत्नी के चार पाँच पोज में  फोटोग्राफी में ही संतोष किया था। 

     अगले दिन टूरिस्ट बस से कोणार्क मंदिर दर्शन के लिये निकले ।

   यह यात्रा 35 कि.मी.की थी ।एक घंटे में  बस कोणार्क मुहाने पर पहुँच गई थी ।चंद कदम पैदल  चलकर हम मंदिर के प्रांगण में  आ गये ।

       गाइड के अनुसार मंदिर का निर्माण १३सदी में  वर्मन राजा ने  कराया था ।इसके बनाने में १२०० कारीगर १२ वर्षों में  पूरा किया था ।इसकी लागत चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्रा आई थी ।। 

    इसकारण छह वर्षों का एकत्र राज कोष समाप्त हो गया था ।यह मंदिर विशाल रथ के आकार में था जिसमें सात घोड़े जुते थे ।सारथी का स्थान भी बना था ।

   इसके विशाल पहियों में जीवन चक्र चित्रित है ।इसपर चित्रित रतिक्रिया के विभिन्न रूप पर्यटकों को आकृषित कर रहीं थी ।

    कोणार्क के शीर्ष पर सूर्य की तीन प्र तिमा स्थापित थी । पूर्व की प्रतिमा पर सुबह  सूर्य की किरणें पड़ती है तो दोपहर को दक्षिण तथा शाम को पश्चिम की प्र तिमा पर सूर्य की किरणें पड़ती थी ।

      भीतरी भाग पर भी ऊपर के झरोखों से सूर्य की किरणें भीतर उतरती थी लेकिन अब ये झरोखे बंद हैं ।मंदिर के ऊपर कलश था जो टूट चुका था ।

     लगभग 12 बजे टूरिस्ट बस आगे चली ।लगभग दो घंटे चलकर धौलगिरी रुकी ।सामने पहाड़ी. पर.जापान निर्मित संग मरमर का  सूबसूरत बौद्ध स्तूप  स्थापित था  जिसके शिखर पर पांच छतरियां थीं जो पंचशील सिद्धांत़ो का ग्योतक थीं ।यह जापान इंडो.सहयोग से बना है ।स्तूप के चारो ओर बुद्ध की पांच मुद्राओं वाली मूर्ति लगी थीं ।पहाड़ी के नीचे बौद्ध गुफायें थीं।         

   बायीं ओर विशाल मैदान था ।कहते हैं ,यहीं कलिंग युद्ध हुआ था ।उसके बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ था ।

      यहाँ से भुवनेश्वर मात्र तीन कि.मी.दूर था । ले किन बस इतिहास प्रसिद्ध उदयगिरि गुफाओं की ओर बढ़ने लगी जो भुवनेश्वर से पच्छिम मात्र दस कि.मी.पर है ।लगभग ढ़ाई बजे पर्वत के सामने थे ।सामने ऊँचाई पर कई गुफायें दिखाई दे रहीं थीं । ये जैन परम्परा के भिक्षुओं की तपोस्थली मानी जाती हैं । ऐसी मान्यता है कि इसी स्थान पर.500 जैन मुनियों ने मोक्ष प्राप्त की थीं ।

     उदय गिरी का नाम कुमार गिरी भी है ।महावीर स्वामी यहाँ वर्षा ऋतु में विहार किए थे, जैन इतिहास कारों का मानना है । 

   इन गुफाओ का वर्गीकरण किया गया है जिसे हम अलकापुरी,जय विजय, गणेश गुफा कहते हैं ।गणेश गुफा के सामने दो हाथी मूर्ति हैं ।लौटने पर स्वर्ग गुफा ,मध्य गुफा तथा पाताल गुफा थीं ।इसी के ऊपर इतिहास प्र सिद्ध हाथी गुफा अभिलेख मिला है जिसकी शिला छत पर 

कलिंग नरेश खारवेल का लेख है। इसी लेख से इस प्र तापी राजा का पता चला था जो जैन यादव था ।लेख से पता चलता है कि इसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर राजा को पराजित कर हाथियों का गंगा स्नान कराया था ।औऱ राजा से महावीर   की मूर्ति लेकर कलिंग वापस आ गया था । 

     उदयगिरी के समीप बायीं तरफ खण्ड गिरि है ।यहाँ भी पांच गुफायें हैं । शिखर पर आधुनिक जैन मंदिर है ।एक बड़ी गुफा में  चौबीस तीर्थंकरों की मूर्ति उत्कीर्ण है ।

     इसके बाद बस नये भुवनेश्वर के चक्कर लगाती हुई पुराने भुवनेश्वर पहुंची जहाँ प्र सिद्ध लिंगराज मंदिर सामने दिख रहा था ।यह उत्कल की प्राचीन राजधानी थी । यह शिव मंदिरों की नगरी है ।

      लिंगराज मंदिर इतना विशाल होते भी बारह महाशिवलिंगो में इसकी  गिनती नहीं होती है ।यह मंदिर भी कोणार्क मंदिर की तरह १०-१२वीं शताब्दी में  निर्मित है । मंदिर  एक बड़े प्राकार ( चारदीवारी) के भीतर स्थित है ।इसके चारों ओर.द्वार है ।मुख्य द्वार सिंह द्वार है ।

    इस मंदिर में  केवल बेल पत्ता व तुलसी पत्ता चढ़ाया जाता है ।लेकिन अब प्रसाद के रूप में  गुण के शीरे से बनी लाई दी जाती है ।लिंगराज मंदिर के अलावा यहाँ बड़ी संख्या में छोटे छोटे  शिव मंदिर हैं ।

     लिंगराज मंदिर के दर्शन के बाद टूरिस्ट बस नन्दन कानन जू पर रुकी थी ।यह संरक्षित वन है यह सफेद शेर व चीतों के लिये प्रसिद्ध है ।बड़े बड़े बाड़ो में खुले में शेर चीते घूम रहे थे ।वन में गैंडा,घड़ियाल ,वनमानुष ,दरिया ई घोड़ा आदि भी थे । वन क्षेत्र बहुत बड़ा है ।

       लगभग पांच बजे बस वहाँ से चलकर दो घंटे में बस पुरी पहुंची थी ।

   लगभग 240 कि.मी.यात्रा करने से  हम दोनों बुरी तरह थक गये थे ।गेस्ट हाऊस में  आकर हमने  हाथ पैर धोकर थोड़ा आराम किया ।फिर एक मारवाड़ी भोजनालय में जाकर भोजन किया ।

        अगले दिन हम  सुबह जगन्नाथ मंदिर दर्शन के लिए पहुँच  गये ।

   यह मंदिर उत्कल नरेश ययाति केसरी ने बनवाया था ।जो बाद में नमक युक्त हवा से नष्ट हो गया ।बाद में इसी जगह सम्राट गंगदेव.ने बारहवीं शताब्दी में विशाल मंदिर का  निर्माण कराया  ।इस भव्य मंदिर को शंकराचार्य ने धाम के रूप में पूर्व घोषित  कर.चुके थे ।

    जगन्नाथ मंदिर शताब्दियों से प्राकृतिक विपदाओं के बीच अपनी भव्यता को सुरक्षित किये खड़ा है ।मंदिर के बाहर पूर्व की ओर कोणार्क से लाया गया विशाल गरुण स्तंभ  है । मंदिर के बाहर की प्राचीर 22 फुट ऊँची है ।सिंह द्वार से प्र वे श करने पर जगन्नाथ के विग्रह का दर्शन होता था ।

    इस विशाल मंदिर  की व्यवस्था एक ट्रस्ट के अधीन है जिससे लगभग १५हजार पण्डे सम्बद्ध हैं ।मेरे पीछे भी एक पण्डा लगा रहा था लेकिन मैं ने उसे महत्व नहीं दिया तो वह भीड़ में गायब  हो गया था ।

  हमे  भोग मण्डल में पंक्ति में  खड़े हुये एक घंटा हो गया था ।

आगे बाँस लगाकर पंक्ति ऱोक दी गई थी ।यहीं से आरती औऱ प्रसाद पण्डो द्वारा चढ़ाया जा रहा था ।

        मैंने भी एक टोकरी मंदिर के काउंटर से १०१ रुपये में  खरीद लिया था चढ़ाने के लिये ।टोकरी में बीस रुपये रखकर पण्डे को दिया ।उसने मेरा नाम  व गोत्र पूछा औऱ फिर प्रासाद.चढ़ा कर लौट आया । मैंने उसे फिर दस रुपया दे दिया था ।

     लगभग पौने दस बजे भीतर गर्भ गृह में  जाने की इजाजत मिली । रास्ता खुलते ही भीड़ भोग मण्डप से नाट मंदिर में होकर जगमोहन में प्रवेश कर गईं   ।जगमोहन के भीतर निज मंदिर श्याम वर्ण जगन्नाथ जी ,मध्य में सुभद्रा  एंव दाहिनी ओर श्री बलभद्रजी विराजमान थे । भीड़ अधिक होने के कारण  भगवान का चरणस्पर्श व परिक्रमा का अवसर मुझे नहीं मिला ।औऱ  जल्दी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था ।

    पुरी की रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है ।यह १६ जुलाई से शुरू होनी थीं पर हमारी वापसी ७जुलाई को.निश्चित थी । इसलिये यात्रा में शामिल होना मुमकिन नहीं था।

   हम घूमते हुये  कारीगरों के द्वारा तैयार किये जा रहे रथ  को देखने पहुँच गये ।

   एक जगह सैकड़ों कारीगरों को. रथ निर्माण में लगे देखा ।एक कारीगर ने बताया  कि ८३२ काष्ठ खण्डों से निर्मित नंदी घोष रथ में १६ विशाल पहिये होते हैं।इन पहियों की धुरी कमानी भी लकड़ी की ही होतीं हैं ।

      रथ निर्माण देखने के बाद बाजार में घूमने लगे ।एक दूकान से पत्नी ने  उड़ीसा की संभलपुरी  सूती साड़ी खरीदी ।

        मंदिर से प्रसाद.की सुखाई गयी नमकीन खिचड़ी खरीदी ।मटकी में बन रही खिचड़ी खरीद कर खाई गई । पहले यह मुफ्त मिलती थी ।

        शाम के चार बज रहे थे ।गर्मी बहुत थी ।इसलिये रिक्शे से रेलवे स्टेशन आ गये ।एअर कंडीशन्ड वेंटिंग रूम में आराम किया । पुरुषोत्तम एक्स रात नौ बजे रवाना हुई थी ।

    ट्रेन से हम बनारस आ गये 

                     # डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव
                    6 A-53  वृंदावन कालोनी 
                   लखनऊ -226029 
                   Mo.7021249526


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