मन करता है
मैं उसी कुएँ से नहाऊँ, पानी भरूँ
जहाँ कभी
परिवार के सभी लोग
हँसी के छींटों में
जीवन की छोटी-छोटी खुशियों में
लिप्त थे।
पर अब वही कुआँ
चुप्पी ओढ़े खड़ा है
उसके होंठों पर
घास और झाड़ियाँ उग आई हैं
और कदमों की आहट
बरसों से अब तक
लौटकर नहीं आई।
कुएँ तो आज भी वही हैं
पर परिवार
एक से टूटकर अनेक हो गया है।
और उस कुएँ के किनारे
अब
यादों की पतझड़ बह रही है।
-प्रतीक झा ‘ओप्पी’ (उत्तर प्रदेश)





