Story - vanvas ki antim ratri | वनवास की अंतिम रात्रि
December 28, 2023 ・0 comments ・Topic: Ram ki kahani Shashi Mahajan story
वनवास की अंतिम रात्रि
राम, सीता, लक्ष्मण समुद्र तट पर एक शिला पर बैठे, वनवास की अंतिम रात्रि के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। चाँद बादलों में अठखेलियाँ खेल रहाथा। पूरी प्रकृति शांत थी, मंद पवन के झकोरों में वानर सेना दूर खुले में सोई थी । तीनों के मन इस अंतिम रात्रि के सौंदर्य को भीतर संजो लेना चाहते थे, तीनों अयोध्या जाने को उत्सुक थे, परन्तु वे यह भी जानते थे, जीवन का एक और चरण पूर्ण होने को है, और जीवन के इन चौदह वर्षों की चर्चा अभी शेष है ।
राम ने कहा,” लक्ष्मण, तुम हम दोनों से छोटे हो, इसलिए अभिव्यक्ति का पहला अवसर तुम्हें मिलना चाहिए ।”
“ जी भईया, बड़ों का आदर हमारा सामाजिक मूल्य है, बड़े यदि छोटों की बात पहले सुन लेते हैं तो टकराव की कई स्थितियों से , संबंध बच जाते हैं । “
“ ठीक कहा तुमने। “ राम ने लक्ष्मण के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा ।
“ भईया, मेरा विश्वास सदा से मानवीय संबंधों में रहा है, और इस पूरी वनवास यात्रा से मैं यही समझा हूँ कि यदि हम उनको सुदृढ़ नहीं बनायेंगे तो कभीभी सुखी समाज की स्थापना नहीं कर सकेंगे ।”
कुछ पल के लिए लगा, सौमित्र अंतर्मुखी हो उठे हैं, राम सीता उनके फिर से बोलने की प्रतीक्षा में, उनकी ओर देखते रहे।
लक्ष्मण ने नीचे पृथ्वी की ओर देखते हुए कहा, “ जब माँ कैकेयी ने आप पर अविश्वास किया, पिता की मृत्यु हुई, भरत ने उनका अपमान किया, आपकोवनवास हो गया, जो युद्धों और कष्टों से भरा समय था, इतिहास ने उन्हें कलंकित कर दिया ।”
लक्ष्मण की साँस तीव्र गति से चल रही थी, और राम लक्ष्मण के संकोच को समझ रहे थे, फिर भी वह लक्ष्मण के बोलने की प्रतीक्षा करते रहे। अंततःलक्ष्मण ने कहा,
“ और भाभी ने जब मुझ पर अविश्वास किया तो परिणाम था युद्ध , एक संपन्न राज्य का विनाश, उनका स्वयं का वह असहनीय कष्ट ।”
“ क्या तुम उसके लिए मुझे क्षमा नहीं कर सकते ? “ सीता ने कहा ।
“ आपको क्षमा की आवश्यकता नहीं है भाभी, आप हर स्थिति में मेरी वंदनीय हैं । प्रश्न है ऐसे समाज के निर्माण का जिसमें मनुष्य के मन से यह असुरक्षाका भाव समाप्त किया जा सके।”
“ तुम्हारा विचार मनुष्य के अवचेतन मन से संबंधित है, अयोध्या चल कर मैं इस विषय पर अवश्य दार्शनिकों से चर्चा करूँगा ।” राम ने सोचते हुए कहा ।
सीता ने देखा राम की दृष्टि अब उन पर टिकी है, वह सोच रहीं थी ऐसी उनके मन की कौन सी बात है जो राम से छुपी है, जिसे राम आज सुनना चाहते हैं ।फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा, “ राम, आपने मेरे विचारों को और इच्छाओं को पत्नी रूप में सदा सम्मान दिया, और इससे मेरा जीवन संतोष से भर उठाहै, परन्तु रावण ने जब मेरा हरण किया तो मैं समझ गई, नारी का सच्चा सम्मान उसके मातृत्व में है, जिस समाज में पुरुष यह मान लेगा कि , नारी कीशक्ति उसका तन नहीं, मातृत्व है, तो वहाँ न केवल नारी सुरक्षित होगी, अपितु वह सफल नागरिकों का निर्माण भी कर सकेगी ।”
राम और लक्ष्मण कुछ पल सीता की पीड़ा का अनुभव कर विचलित हो उठे, फिर राम ने सीता के कंधे पर हाथ रख कर कहा, “ अवश्य जानकी, हम ऐसीअर्थव्यवस्था का निर्माण करेंगे, जिसमें नारी अपना पूर्णत्व पा सके, और समाज अपना संतुलन ।”
“ अब आप कुछ कहिए भईया । “
“ मेरे पास कहने के लिए बस इतना ही है, मेरा हर निर्णय मुझे अपने भीतर की दीवारों से मुक्त करता गया, चाहे फिर वह वन आने का निर्णय हो या रावणको ललकारने का, आज मैं भय मुक्त भविष्य पथ के लिए तत्पर हूँ , इन चौदह वर्षों ने मुझे हर किसी से प्रेम करना सिखाया है, अभाव में प्रयत्न करनासिखाया है, मैंने कभी स्वयं को यहाँ लाचार हो, ईर्ष्या ग्रस्त नहीं पाया, और मैं समझता हूँ यह सब तुम दोनों के प्रेम से संभव हुआ है ।”
तीनों की आँखें नम थी, बहुत समय तक वह चुपचाप इस बदलते समय की आहट को अपने भीतर सुनते रहे।
——शशि महाजन
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