श्राद्ध पक्ष और ऊर्जा-द्रव्यमान सिद्धांत
श्राद्ध पक्ष और ऊर्जा-द्रव्यमान सिद्धांत -लक्ष्मी दीक्षित |
पूर्व काल में यह सारे कर्मकांड ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए थे जिसमें वो यज्ञ पुरोहित के रूप में अपना भाग भी रखते थे। इसीलिए इन सभी कर्मकांडों में ब्राह्मणों ने अपनी जगह सुनिश्चित कर ली क्योंकि यह उनकी आजीविका का साधन बन गया। वास्तव में स्थूल शरीर के छूटने के बाद सूक्ष्म शरीर में सूक्ष्म लोकों में जीव की जो यात्रा होती है वह उसके द्वारा जीवन काल में किए गए उसके सत्कर्मों पर निश्चित होती है। अगर कोई जीवात्मा अपने लौकिक जीवन में ज्यादा सत्कर्म करती है तो उसका सूक्ष्म शरीर उतना ही हल्का होता है, उस जीवात्मा की तुलना में जो अपने लौकिक जीवन काल में पाप कर्म या दोषपूर्ण कार्य करती रहती है और जिस जीवात्मा का शरीर जितना हल्का होता है वह उतने ही ऊपर के लोक में स्थान प्राप्त करती है।
वस्तुतः कर्म ही जीवात्मा को एनर्जी प्रोवाइड कराता है जैसा कि आइंस्टीन के द्रव्य-ऊर्जा का तुल्यता का सिद्धांत है। यदि ∆m (द्रव्यमान या मैटर हमारा भौतिक शरीर) जो पूर्णता उर्जा में बदल जाता है ∆E (हमारा सूक्ष्म शरीर या मॉलिक्युलर बॉडी) तो प्राप्त उर्जा ∆E= ∆mc2 जहां C प्रकाश की चाल है मतलब वह गति जो सूक्ष्म शरीर के पास होगी उच्च लोकों की यात्रा करने के लिए। और यह गति जीवन काल में किए गए उसके कर्मों से ही आती है तभी तो भगवत गीता में भी कहा गया है कि हमारे कर्म हजारों वर्षों बाद भी हमारा पीछा नहीं छोड़ते।
तर्पण, श्राद्ध आदि वो सत्कर्म हैं जो हम अपने लिए कर रहे हैं। इनसे उस जीवात्मा को कोई बल नहीं मिलता अपने सूक्ष्म जगत की यात्रा में जो अपना स्थूल शरीर छोड़ चुकी है। मंत्रोच्चार में बल होता है किंतु आज के समय में किसी पंडित के मंत्रोच्चार में इतना बल नहीं जो आपके अटके हुए पूर्वजों को उच्च लोक में पहुंचा दे। यह कार्य तो आपको ही करना होगा परमात्मा का ध्यान और माफी प्रार्थना द्वारा।
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