आजादी का तमाशा कब तक?
आजादी की 76वीं वर्षगांठ के अवसर पर क्या हम खुलकर कह सकते है कि वास्तव में हम स्वतंत्रता का सुख अनुभव कर रहे हैं? नहीं, तो क्यों? क्या इसी आजादी के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया था। तमसो मा ज्योतिर्गमय का उद्घोष करने वाले देश में कालिमा के बादल कैसे छटेंगे। लोकतंत्र के चारो पाये एक दूसरे से अधिक शक्तिशाली बनने की जुगत करने में लगे है, लोकहित को तिरोहित कर दिया हैं। स्वराज की परिकल्पना करते समय सोचा था कि भारतीय नागरिक आजादी के उपरांत अभाव, तनाव, उत्पीड़न से मुक्त होकर प्रगति के नये सोपान तय करेंगे पर आजादी के बाद इसके विपरीत काले अंग्रेजों ने हमें दिया भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्रवाद का यह नासूर जिसका जितना इलाज किया जाता है वह उतना ही अधिक तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। जिसके कंधे पर हल का बख्खर रखकर यह देश अन्नदाता बना है, उन्हीं श्रमपुत्रों ने वर्ष 1976 में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव डी. बंदोपाध्याय को मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में अपना यह गीत सुनाया थाः-‘‘जागो तरेती अंधारा में जाऊ,
जागो तरेती अंधारा में आऊ,
म्हारो आखी उभर में अंधारूझ,
अंधारूझ है उजारू कर कानो है’’
उठकर अंधेरे में जाता हूॅ,अंधेरे में लौटकर आता हूँ,मेरे पूरे जीवन में अंधेरा है,अंधेरा है, उजाला कहीं नहीं।
आदमी की नियति बदल जाती तो अब अंधियारी की कालिमा समाप्त हो चुकी होती पर हमारा राष्ट्र कर्ज के तेल पर दीपक की लौ को प्रकाशमान करने की विकृत चेष्टा कर रहा है। उधार की रोशनी से कितना प्रकाशमान हो जाया जा सकता यह प्रश्न कब सुलझेगा? बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है सारा देश वर्तमान में दो विचारधाराओं के बीच पिस रहा है अति आधुनिक और पुरातन के भारत को आदिम युग में ले जाने की चेष्टा हो रही है इसकी स्पष्ट झलक राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी देखी जा सकती है यहां की महिलाएं सजा के तौर पर लौसा पहनने के लिए विवश है। लौसा कच्छे (अंडरवियर) के आकार का लोहे का यंत्र होता है। यह लोहे की पट्टियों का बना होता है,जिसकी पट्टियां औरत के गुप्तांगों पर चढ़ जाती है और एक वृत्ताकार पट्टी से कस दी जाती है। बाद में इसमें ताला जड़ दिया जाता है। लौसा के कारण औरत की दिनचार्या कष्टप्रद हो जाती है तो दूसरी ओर खुलापन का नंगा नाच चल रहा है। स्वछंदता और परतंत्रता की बीच स्वतंत्रता का अर्थ ही खो गया प्रतीत होता है।
क्षणिक लाभ के लिए राष्ट्र कर्णधर हमें वोटो के खातिर कब तक लड़ाते रहेगें और हम स्वयं अपनों को शिकार बनाते रहेंगे यह प्रश्न भी हमें चिंतन के लिए विवश करता है। भारतीय राजनैतिक धरातल पर गांधी से जे0पी0 के अवतरण तक सामाजिक, आर्थिक मुद्दे परिवर्तन के दायरे से परे रहने के कारण व्यवस्था से जुड़े सभी बुनियादी लाभ जनमानस के बीच नहीं आ सके है। पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से स्वीकारा कि सरकार द्वारा ग्रामों के लिए आवंटित धन में 85 प्रतिशत बीच के बिचौलिए द्वारा लूट लिया जाता है मात्र 15 प्रतिशत धन ही पहुंच पाता है यह कटु सत्य जान लेने से ही काम नहीं चल सकता है जरूरत इस बात की थी कि व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन लाए जाते पर दुर्भाग्य से राजीव गांधी के बाद सिंहासन पर बैठने वालों ने अपना मुँह मोड़ लिया। गाँधी के ग्राम स्वराज और स्वदेशी के मूल-मंत्र से आम जनों के उद्योग धंधे पुर्नस्थापित हो सकते थे विश्व व्यापार संघ के आगे घुटने टेक कर उन्हें पंगु बना दिया। विदेशी सहायता से सर्वाजनिक उपक्रम की स्थापना तक तो उत्पादन के उपदान खड़े होने के साथ ही नैतिक पतन की शुरूआत हो गयी। हमारे यहां लक्ष्मी को धन-धान्य कहा गया है। धाना यादि धान ही धन का स्त्रोत था जो कड़ी मेहनत से ही खेत से प्राप्त होती थी बिना मेहनत किये कुछ भी नहीं मिल सकता था, लेकिन विदेशी उपक्रम में श्रम घट गया और उसका स्थान मशीनों द्वारा ग्रहण करने से हमारे हाथ बेकार हो गये। लंबे समय तक कार्य न मिलने से हमारी कार्यक्षमता समाप्त हो रही है।
राजनैतिक हस्तक्षेप के परिणाम स्वरूप देश में हड़ताल, धरना, प्रदर्शन का स्थायी शगल फैशन का रूप धारण कर चुका है शासकीय सेवा में कार्यरत कर्मचारी, अधिकारी जो कि सेवक थे आज मालिक की तरह व्यवहार कर रहे हैं। लोकशाही लालफीताशाही के मकड़जाल में उलझकर रह गई है। उत्तरदायित्व का निर्धारण न होने के कारण विकास की अवधारणा ही ध्वस्त हो गयी है। एक बांध अथवा सड़क के निर्माण के समय जो बजट निर्धारित होता है वह कार्यपूर्ण होने तक पाँच गुना अधिक खर्च हो जाने के बाद भी पूर्णता के बिन्दु पर कार्य को नहीं पहुंचाया है जिसके कारण खर्च हुआ धन मात्र अपव्यय ही साबित होता है आखिर जनता की खून पसीने की कमाई पर यह बन्दरबाट कब तक चलती रहेगी। लोकतन्त्र के मन्दिर लोकसभा, राजसभा, विधानसभा तथा विधान परिषद, की बैठकों के आंकलन का समय कब आयेग, कब हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि इन पवित्र स्थानों का उपयोग लोकहित मे करेंगे। क्या सिर्फ वाक आऊट और शोर शराबा ही आज की जरूरत है? क्या करोड़ों अरबों रूपये का लोकधन हमारे प्रतिनिधियों को इसीलिए मिल रहा है? राजनेता बिना कार्य करे रातो रात करोड़ पति बन जाये। लोक द्वारा करो के माध्यम से भेजा गया लोकधन व्यक्तिगत तिजोरी में चला जाये? सरकार अपनी मर्जी से चलायी जाए सिर्फ बहुमत के गणित से, तो फिर क्या जरूरत है इस कवायद की क्योंकि गणित पक्ष में है तो सरकार जनहित को तिरोहित करने वाले विधेयक रोज लागू करती रहेगी और हमारे प्रतिनिधि दल के नियमों के कारण मूकदर्शक बने रहेंगे। व्हिप जारी करने की परम्परा ने सीधे तौर पर सदस्य की स्वतंत्रता को परतन्त्र बना दिया है उसके विपरीत मताधिकार का प्रयोग पार्टी अनुशासनहीनता के रूप में लेकर सदस्यता समाप्त करने की कोशिश की जाएगी फिर लोकतंत्र कैसा? किसे स्वतंत्रता है जब हमारे प्रतिनिधि ही जिन्हें हमने लोकसभा और विधान सभा में भेजा है इतने पंगु है तो फिर यह आजादी का तमाशा क्यों? कब तक चलता रहेगा।
क्षणिक लाभ के लिए राष्ट्र कर्णधर हमें वोटो के खातिर कब तक लड़ाते रहेगें और हम स्वयं अपनों को शिकार बनाते रहेंगे यह प्रश्न भी हमें चिंतन के लिए विवश करता है। भारतीय राजनैतिक धरातल पर गांधी से जे0पी0 के अवतरण तक सामाजिक, आर्थिक मुद्दे परिवर्तन के दायरे से परे रहने के कारण व्यवस्था से जुड़े सभी बुनियादी लाभ जनमानस के बीच नहीं आ सके है। पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से स्वीकारा कि सरकार द्वारा ग्रामों के लिए आवंटित धन में 85 प्रतिशत बीच के बिचौलिए द्वारा लूट लिया जाता है मात्र 15 प्रतिशत धन ही पहुंच पाता है यह कटु सत्य जान लेने से ही काम नहीं चल सकता है जरूरत इस बात की थी कि व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन लाए जाते पर दुर्भाग्य से राजीव गांधी के बाद सिंहासन पर बैठने वालों ने अपना मुँह मोड़ लिया। गाँधी के ग्राम स्वराज और स्वदेशी के मूल-मंत्र से आम जनों के उद्योग धंधे पुर्नस्थापित हो सकते थे विश्व व्यापार संघ के आगे घुटने टेक कर उन्हें पंगु बना दिया। विदेशी सहायता से सर्वाजनिक उपक्रम की स्थापना तक तो उत्पादन के उपदान खड़े होने के साथ ही नैतिक पतन की शुरूआत हो गयी। हमारे यहां लक्ष्मी को धन-धान्य कहा गया है। धाना यादि धान ही धन का स्त्रोत था जो कड़ी मेहनत से ही खेत से प्राप्त होती थी बिना मेहनत किये कुछ भी नहीं मिल सकता था, लेकिन विदेशी उपक्रम में श्रम घट गया और उसका स्थान मशीनों द्वारा ग्रहण करने से हमारे हाथ बेकार हो गये। लंबे समय तक कार्य न मिलने से हमारी कार्यक्षमता समाप्त हो रही है।
राजनैतिक हस्तक्षेप के परिणाम स्वरूप देश में हड़ताल, धरना, प्रदर्शन का स्थायी शगल फैशन का रूप धारण कर चुका है शासकीय सेवा में कार्यरत कर्मचारी, अधिकारी जो कि सेवक थे आज मालिक की तरह व्यवहार कर रहे हैं। लोकशाही लालफीताशाही के मकड़जाल में उलझकर रह गई है। उत्तरदायित्व का निर्धारण न होने के कारण विकास की अवधारणा ही ध्वस्त हो गयी है। एक बांध अथवा सड़क के निर्माण के समय जो बजट निर्धारित होता है वह कार्यपूर्ण होने तक पाँच गुना अधिक खर्च हो जाने के बाद भी पूर्णता के बिन्दु पर कार्य को नहीं पहुंचाया है जिसके कारण खर्च हुआ धन मात्र अपव्यय ही साबित होता है आखिर जनता की खून पसीने की कमाई पर यह बन्दरबाट कब तक चलती रहेगी। लोकतन्त्र के मन्दिर लोकसभा, राजसभा, विधानसभा तथा विधान परिषद, की बैठकों के आंकलन का समय कब आयेग, कब हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि इन पवित्र स्थानों का उपयोग लोकहित मे करेंगे। क्या सिर्फ वाक आऊट और शोर शराबा ही आज की जरूरत है? क्या करोड़ों अरबों रूपये का लोकधन हमारे प्रतिनिधियों को इसीलिए मिल रहा है? राजनेता बिना कार्य करे रातो रात करोड़ पति बन जाये। लोक द्वारा करो के माध्यम से भेजा गया लोकधन व्यक्तिगत तिजोरी में चला जाये? सरकार अपनी मर्जी से चलायी जाए सिर्फ बहुमत के गणित से, तो फिर क्या जरूरत है इस कवायद की क्योंकि गणित पक्ष में है तो सरकार जनहित को तिरोहित करने वाले विधेयक रोज लागू करती रहेगी और हमारे प्रतिनिधि दल के नियमों के कारण मूकदर्शक बने रहेंगे। व्हिप जारी करने की परम्परा ने सीधे तौर पर सदस्य की स्वतंत्रता को परतन्त्र बना दिया है उसके विपरीत मताधिकार का प्रयोग पार्टी अनुशासनहीनता के रूप में लेकर सदस्यता समाप्त करने की कोशिश की जाएगी फिर लोकतंत्र कैसा? किसे स्वतंत्रता है जब हमारे प्रतिनिधि ही जिन्हें हमने लोकसभा और विधान सभा में भेजा है इतने पंगु है तो फिर यह आजादी का तमाशा क्यों? कब तक चलता रहेगा।
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-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर.
विधान सभा मार्ग;लखनऊ
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