आखिरी खत : खन्ना के स्टारडम का पहला पत्र

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आखिरी खत : खन्ना के स्टारडम का पहला पत्र
राजेश खन्ना की फिल्मों की बात की जाती है तो सामान्य रूप से उनकी पहली फिल्म 'आखिरी खत' का उल्लेख नहीं होता। इसके दो कारण हैं- एक तो हिंदी सिनेमा का तारा नहीं सूरज जैसी उनके कैरियर में ऐसी ऐसी चमकती फिल्में आईं कि 'आखिरी खत' जैसी तमाम 'साधारण' फिल्में गुम हो गईं और दूसरा 1966 में यह फिल्म आई तो इससे कोई खास अपेक्षा नहीं थी। आनंद बंधुओं में ज्येष्ठ चेतन आनंद ने 1964 की अपनी खर्चीली युद्ध फिल्म 'हकीकत' के बाद लो बजट में एक प्रयोगात्मक फिल्म के रूप में 'आखिरी खत' हाथ में ली थी। 1967 के ऑस्कर अवार्ड के लिए 'आखिरी खत' को श्रेष्ठ विदेशी फिल्म की केटेगरी में नामिनेट भी किया गया था। इसे अवार्ड क्यों नहीं मिला यह तो पता नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि राजेश खन्ना की पहली फिल्म ऑस्कर के लिए गई थी।
फिल्म की स्क्रिप्ट एकदम हल्की थी। पंद्रह महीने का एक बच्चा मुंबई की सड़क पर छूट जाता है और सिनेमेटोग्राफर जाल मिस्त्री के हाथों में थामा कैमरा उसके पीछे-पीछे घूमता है। ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्मों के उस जमाने में इस तरह के मूविंग कैमरे का प्रयोग शायद पहली बार हुआ था। जाल और उनके भाई फली मिस्त्री ने उस जमाने में सिनेमेटोग्राफी में बहुत नाम कमाया था।
चेतन आनंद मूल तो इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) की पैदाइश थे। वह हिंदी सिनेमा के स्टार सिस्टम को नहीं मानते थे। इसलिए 1965 में निर्माताओं के एक संगठन यूनाइटेड प्रोड्यूसर एंड फिल्मफेयर की प्रतिभा शोध प्रतियोगिता में विजेता बने जतीन खन्ना को उन्होंने 'आखिरी खत' के लिए और संगठन के अध्यक्ष जीपी सिप्पी ने 'राज' फिल्म के लिए साइन किया था। जबकि 'आखिरी खत' इसके पहले रिलीज हुई थी।
इस प्रतियोगिता में 10,000 उम्मीदवारों में से 8 लोग फाइनल में आए थे और उनमें से खन्ना, सुभाष घई और फरीदा जलाल विजेता घोषित हुई थीं। उसी साल शशी कपूर-नंदा की ब्लॉकबस्टर फिल्म 'जब जब फूल खिले' में जतीन खन्ना नाम का एक एक्टर था, इसलिए खन्ना ने उसका नाम बदल कर राजेश खन्ना रख दिया था। चेतन आनंद को उस समय अंदाजा भी नहीं था कि 15 साल बाद वह उनके साथ 'कुदरत' फिल्म बनाएंगे। उस समय यह नवोदित खन्ना हिंदी सिनेमा के इतिहास का सब से बड़ा सुपरस्टार बन जाएगा।
अमिताभ बच्चन की डेब्यू सात हिंदुस्तानी वाले के.ए. अब्बास ने 1954 में 'मुन्ना' नाम की एक फिल्म बनाई थी। जिसमें 6 साल के एक बच्चे को उसकी विधवा मां अनाथालय में छोड़ आती है। वहां से वह लड़का भाग निकलता है और मां की खोज में शहर में घूमता है। 'मुन्ना' हिंदी सिनेमा की पहली बिना गानों की फिल्म कही जाती है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को यह फिल्म बहुत पसंद आई थी और फिल्म की यूनिट को घर पर खाने को बुलाया था।
'आखिरी खत' की प्रेरणा अब्बास की फिल्म थी। इसमें कुल्लू गांव का रहने वाला शिल्पकार गोविंद (खन्ना) गांव की लड़की लज्जो (धरम वीर में महारानी की भूमिका करने वाली इंद्राणी मुखर्जी) मंदिर में जाकर चोरी से विवाह कर लेते हैं। इसके बाद गोविंद आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला जाता है। गांव में लज्जो को पता चलता है कि वह गर्भवती है। इसलिए वह गोविंद की तलाश में शहर आ जाती है। गोविंद यहां बदल जाता है। लज्जो उसके दरवाजे पर एक कागज रख कर चली जाती है। लज्जो जूठन बीन कर बच्चे को खिलाती है और एक दिन उसे अनाथ छोड़कर मर जाती है। बच्चा शहर में भटकने लगता है। दूसरी ओर लज्जो का कागज पढ़ने के बाद गोविंद को अपनी गलती का अहसास होता है और वह अपने बेटे की खोज में निकल पड़ता है।
बिना विवाह के मातृत्व पर सालों बाद अनेक फिल्में बनीं, पर 'आखिरी खत' की विशेषता यह थी कि उसका 'हीरो' 15 महीने का बुंटू था। बच्चा शहर में भटक रहा हो, इस तरह के दृश्यों को सहज रूप से कैप्चर करने के लिए चेतन आनंद उसे सड़कों पर छोड़ देते थे और एक आदमी को कैमरा पकड़ा कर उसके पीछे चलने को कहते थे। इतने बड़े शहर में बिना मां के भटकने की उसकी व्यथा और निर्दोषता आबाद रूप से परदे पर उभर आई थी। वह रास्ते पर पड़ा खाना खाता है, मंदिर से भगवान का प्रसाद ले लेता है और कूड़े में पड़ी नींद की गोलियां खा कर रेलवे स्टेशन पर सो जाता है।
फिल्म में मुंबई जैसे बड़े शहर की निर्दयता पर भी एक टिप्पणी थी। जैसे कि गोविंद और पुलिस इंसपेक्टर एक रोते बच्चे के पास रोते हुए आदमी से रोने का कारण पूछते हैं तो वह जलते हुए सवाल करता है, "यहां रोना मना है? पीना तो मना है, खाना भी मना हो रहा है, हंसना तो अपने आप ही मना हो जाएगा, पर रोना क्यों मना है?"
उस बालकलाकार का नाम मास्टर बंटी था। एक जमाने में इंद्र कुमार बहल नाम के एक सज्जन हेमा मालिनी के सेक्रेटरी थे। इन्हीं आई.के.बहल ने 1978 में विजय आनंद के निर्देशन में धर्मेन्द्र, हेमा, देव आनंद, परवीन बाबी, शशी कपूर, टीना मुनीम और ऋषि कपूर को लेकर एक मल्टी स्टारर फिल्म बनाने की घोषणा की थी। पर इसमें पैसे को लेकर हेमा ने बहल को छोड़ दिया था। यह मास्टर बंटी इसी बहल का बेटा था। 18 साल बाद चेतन आनंद के छोटे भाई देव आनंद ने 'हम नौजवान' फिल्म में उसे बंटी बहल नाम से (संजय दत्त की पहली पत्नी) रिचा शर्मा के साथ हीरो के रूप में पेश किया था।
'आखिरी खत' का दूसरा एक आकर्षक उसका संगीत है। कैफी आजमी और खय्याम की जोड़ी ने इसमें सुमधुर गाने दिए थे। कुल 5 गाने थे। इनमें से दो गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं, 'बहारों मेरा जीवन भी संवारो...' लता मंगेशकर और खय्याम के कैरियर में श्रेष्ठ गानों में एक है। प्रेमातुर युवती के दिल की बात कहता इसका कम्पोजीशन और कैफी की शुद्ध कविता यादगार है। कैफी इसमें लिखते हैं:
'रचाओ कोई कजरा लाओ गजरा, लचकती डालियों तुम फूल वारो
लगाओ मेरे इन हाथों में मेहंदी, सजाओ मांग मेरी या सिधारो बहारो...'
दूसरा रोमांटिक गाना 'रुत जवान मेहरबान...' भुपेन्दर सिंह की आवाज में है। चेतन आनंद ने 'हकीकत' में उनके अभिनय से खुश हो कर गोविंद का रोल भुपेन्दर को ऑफर किया था। यह बात नहीं बनी तब उन्होंने संजय खान से संपर्क किया था। पर यहां भी व्यवस्था नहीं हुई तो नवोदित खन्ना को रोल दिया था। खन्ना के लिए यह फिल्म लाटरी साबित हुई।
2009 में खन्ना को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया था, तब मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा था, "आखिरी खत निर्देशक की फिल्म थी। चेतन आनंद बहुत संवेदनशील और कल्पनाशील निर्देशक थे। फिल्म में मेरे लिए अंतिम दृश्य बहुत चुनौती भरा था, जिसमें गमगीन मूड दिखाना था। चेतन आनंद मुझे देर रात जगा कर शूट कराते थे, जिससे चेहरे पर दुखी भाव दिखाई दे।
'आखिरी खत' को बाक्सआफिस पर जितना सोचा था, उतना प्रतिभाव नहीं मिला था। पर फिल्म विवेचकों ने इसकी खूब तारीफ की थी। इसमें खन्ना पर ध्यान दिया गया था। इसीलिए नासिर हुसेन ने 1967 में अपनी ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्म 'बहारों के सपने' के लिए खन्ना को पसंद किया था। हुसैन के साथ खन्ना की यही एकमात्र फिल्म है। आर.डी.बर्मन के साथ भी उनकी यह पहली फिल्म थी। बाद में खन्ना और बर्मन (किशोर कुमार के साथ मिल कर) एक के बाद एक हिट गाने दिए थे। उसी साल 'राज' भी आई थी, अंग्रेजी में कहें तो रेस्ट आफ हिस्ट्री।

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वीरेन्द्र बहादुर सिंह जेड-436ए सेक्टर-12, नोएडा-201301 (उ0प्र0) मो-8368681336
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