" छात्र नेता, गोली और हत्या "
मुझे अपनों पर पूरा भरोसा है
तब दुश्मनों की औक़ात ही क्या
जब घर ही जयचंदो का है
जिसकी आवाज़ सुनकर कांपते थे
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रत्येक छात्रनेता,
हर एक गली में गूंजता था नाम
अच्युतानन्द उर्फ़ सुमित शुक्ला
आखिर वह प्रयागराज में स्तब्ध क्यों हो गया?
तब धरती के गहन अंधकार स्वर में
एक लहर प्रतिध्वनित हो उठती है
कि "पहले राजनीति के लिए हत्या होती थी
और अब हत्या के लिए राजनीति... "
उसकी तस्वीर तो देखिए जनाब़
गोली खाकर भी आजाद ए चंद्रशेखर
अल्फ्रेड पार्क का हिंदुस्तानी राजा
जिसे देखकर जयचंदों का स्तन
दूध की जगह पानी का संगम बन बैठा
कि कहीं ये खूंखार शेर उठ न जाये
और तब हमारी छत्रछाया कौन बनेगा,
हम किसकी शरण में सुरक्षित होंगें?
लेकिन वह वीर तो जैसे सो गया हो
अपनी राजशाही मुद्रा में,
जिसे उसकी ही पिस्टल से
उसे मार दिया गया था
और अब वह विदा ले रहा था
आसमानी तारों का नया सूर्य बनने के लिए
क्योंकि 'भास्कर' बनकर वह देख सकता है
प्रयागराज के नवनिर्वाचित परीक्षित को,
जिसका पूर्वज कभी जयचंद होता था....!
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भास्कर दत्त शुक्ल
बीएचयू, वाराणसी
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