केंद्र और राज्य सरकार के बीच पिसता आम आदमी
January 19, 2023 ・0 comments ・Topic: lekh Priyanka_saurabh
केंद्र और राज्य सरकार के बीच पिसता आम आदमी
एक दशक से देश की सियासत में एक तरह की राजनीति कुछ अलग ही तरीके से चल पड़ी है, जिसके चलते छोटे-छोटे मामलों पर बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। केंद्र से अलग पार्टी की सरकार वाले राज्यों के पास अक्सर इस बात का रोना रहता है कि फलाँ-फलाँ काम यहाँ अटका पड़ा है। क्योंकि केंद्र में अलग पार्टी की सरकार है। इसलिए काम की फाइल अटकना तो बहाना है, उसके पीछे की सियासत कुछ और ही है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि केंद्र और राज्य में अलग अलग पार्टी की सरकार होने के मायने विकास में असंतुलन और प्रचार की रस्साकसी है| इनके बीच खड़ा वोटर यानि की आम आदमी केंद्रीय और राज्य के संघीय ढांचे में काम के बटवारे से होने वाले नुकसान का भुगतभोगी है|संघवाद सरकार की एक प्रणाली है जिसमें शक्तियों को केंद्र और उसके घटक भागों जैसे राज्यों या प्रांतों के बीच विभाजित किया गया है। यह राजनीति के दो सेटों को समायोजित करने के लिए एक संस्थागत तंत्र है, कई बार यह विवाद की ओर ले जाता है जिसके कारण आम आदमी पीड़ित होता है। कल्याण नीतियों, योजनाओं और सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करने के लिए आयुष्मान भारत की केंद्र सरकार की पहल को कुछ राज्यों द्वारा बाधित किया गया था, उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल ने योजना में शामिल होने से इंकार कर दिया, जिससे कई लाभार्थी सेवाओं से बाहर हो गए।
-प्रियंका सौरभ
एक दशक से देश की सियासत में एक तरह की राजनीति कुछ अलग ही तरीके से चल पड़ी है, जिसके चलते छोटे-छोटे मामलों पर बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। केंद्र से अलग पार्टी की सरकार वाले राज्यों के पास अक्सर इस बात का रोना रहता है कि फलाँ-फलाँ काम यहाँ अटका पड़ा है। क्योंकि केंद्र में अलग पार्टी की सरकार है। इसलिए काम की फाइल अटकना तो बहाना है, उसके पीछे की सियासत कुछ और ही है।
नई शिक्षा नीति में केंद्र सरकार देशभर में शिक्षा के समान मानक चाहती है ताकि देश भर में शिक्षा की पहुंच और समानता सुनिश्चित की जा सके, कुछ राज्यों द्वारा इसका विरोध किया गया था, यह आम आदमी को समग्र शिक्षा के नुकसान को प्रभावित करता है। कृषि विपणन क्षेत्र में हालिया कृषि अधिनियम जो किसानों को अपनी उपज कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) के बाहर बेचने की अनुमति देते हैं और अंतर-राज्य व्यापार को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखते हैं। मॉडल एपीएमसी अधिनियम को अपनाने के लिए राज्य की अनिच्छा के साथ-साथ एकीकृत कृषि बाजार की कमी और ई-एनएएम प्लेटफॉर्म में शामिल होने के उत्साह की कमी ने 2022 तक किसान की आय को दोगुना करने के उद्देश्य से केंद्र की क्षमताओं को सीमित कर दिया है।
आधार आधारित योजनाएं देखे तो पश्चिम बंगाल सरकार का मामला 2017 में संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत 'आधार अधिनियम' की वैधता को चुनौती देते हुए दायर किया गया था। इन गतिविधियों ने आधार पर आधारित विकास योजनाओं का गला घोंट दिया। महामारी नीति के दौरान राष्ट्रीय लॉकडाउन की प्रभावकारिता में राज्यों और केंद्र द्वारा आरोप और प्रत्यारोप लगाए गए हैंI ऑक्सीजन और अस्पताल के बुनियादी ढांचे के लिए जवाबदेह होना चाहिए, यह समग्र रूप से लोगों के कल्याण को प्रभावित करता है। मौजूदा समय में गैर-भाजपा शासित राज्यों में इस बात को लेकर एकता पर बल दिया जा रहा है कि उनके राज्य में राज्यपाल के मार्फत केंद्र सरकार हस्तक्षेप कर रही है। राज्य सरकार के काम में बाधा डाल रही है। केंद्र सरकार ही राज्यपाल के माध्यम से अपने लोगों को राज्य में बड़े पदों पर नियुक्ति करा रही है। यही वजह है कि राज्य सरकारों को काम करने बाधा आ रही है।
महामारी की प्रारंभिक चुनौतियों के बाद, केंद्र सरकार ने राज्यों को उनकी स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने, स्थानीय लॉकडाउन के प्रबंधन और महामारी के प्रभाव को कम करने के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए पर्याप्त स्थान और स्वायत्तता प्रदान की। पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तेलंगाना और ओडिशा जो राज्यों में बेहतर पात्रता-आधारित स्वास्थ्य योजना आयुष्मान भारत कार्यक्रम से बाहर रह रहे थे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तमिलनाडु सरकार द्वारा सामाजिक न्याय, संघवाद, बहुलवाद और समानता के खिलाफ नीति के रूप में देखा गया था। कुछ विपक्षी शासित राज्य सरकार किसानों के अनुसार कानून बड़े निगमों के लिए तैयार किया गया था जो भारतीय खाद्य और कृषि व्यवसाय पर हावी होना चाहते हैं और किसानों की बातचीत शक्ति को कमजोर कर देंगे।
अंतर-राज्य न्यायाधिकरण, नीति और अन्य अनौपचारिक निकायों ने ऐसी स्थितियों में केंद्र, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के बीच परामर्श के माध्यम के रूप में कार्य किया है। ये निकाय संघ और राज्यों के बीच सहयोग की भावना को बनाए रखते हुए विचार-विमर्श के माध्यम से लोकतांत्रिक तरीके से कठिन मुद्दों से निपटने में सहायक रहे हैं। राजनीतिक रूप से प्रेरित झगड़ों को छोड़ देना चाहिए और संस्थानों द्वारा दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय, उन्हें राजनीतिक क्षेत्र के भीतर हल करने के लिए दृढ़ प्रयास किए जाने चाहिए। केंद्रीय कानूनों के कार्यान्वयन की अवहेलना करते हुए राज्यों को खुद को संयमित रखना चाहिए, यदि ऐसा किया जाता है तो इससे संवैधानिक तंत्र चरमरा सकता है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि केंद्र और राज्य में अलग अलग पार्टी की सरकार होने के मायने विकास में असंतुलन और प्रचार की रस्साकसी है| इनके बीच खड़ा वोटर यानि की आम आदमी केंद्रीय और राज्य के संघीय ढांचे में काम के बटवारे से होने वाले नुकसान का भुगतभोगी है| सरकार प्रचार की प्रतिद्वन्धितता में फसी है और जिन्हे इनके बीच रहना और काम करना है उनसे पुछा भी नहीं जाता की तुम्हे क्या ठीक लगता है| ये लोकतंत्र है| एक बार वोट देने के बाद पांच साल तक मनमानी का लाइसेंस देने से ज्यादा कुछ नहीं है वर्तमान का लोकतंत्र| अन्ना आंदोलन में उठी आवाज राइट तो रिकॉल शायद कहीं खो गयी|
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प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
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