कविता - बे-परवाह जमाना
September 01, 2022 ・0 comments ・Topic: poem Siddharth_Gorakhpuri
कविता - बे-परवाह जमाना
ये मन अक्सर बुनता रहता है ,ख्वाबों का ताना बाना ।
दिल भी अक्सर छेड़े रहता है ,एक अल्हड़ सा तराना।
अभी तो गुमसुम सा रहता हूँ इक छोटी सी उम्मीद लिए,
के एक दिन मुझको ढूंढ ही लेगा ,ये बे- परवाह जमाना।
जिन्दगी अक्सर रह जाती है ,अनसुना सा किस्सा बनकर।
हम भी तो रह जातें है केवल, एक छोटा हिस्सा बनकर।
कब आए कब चले जाना है ,नही कोई ठौर ठिकाना।
के एक दिन मुझको ढूंढ ही लेगा ,ये बे- परवाह जमाना।
जिन्दगी रह – रह कर ,कितने लम्हों को चुनती है।
वही पुरानी यादों से ,ख्वाबों के जाले बुनती है।
मेरे आंखों में आँसू होंगे ,गर किस्सा पड़ा सुनाना।
के एक दिन मुझको ढूंढ ही लेगा ,ये बे- परवाह जमाना।
बक्शीस में गर ख़ुशी मिले और ढेरों सारा प्यार मिले।
जब -जब कोई दुआएँ दे ,मुझे ये लम्हा हरबार मिले।
गर ऐसे दुआएँ मिलती रहे ,आसान हो दुख को हराना।
के एक दिन मुझको ढूंढ ही लेगा ,ये बे- परवाह जमाना।
Post a Comment
boltizindagi@gmail.com
If you can't commemt, try using Chrome instead.