व्यंग -सफर?
व्यंग -सफर?
मेरी चचेरी बहन की उत्तर क्रिया में से लौट रही थी राज्य परिवहन की बस में नहीं आई कि उसमे मुसाफिर कुछ अविनयी होते हैं तो प्राइवेट परिवहन की टिकिट ले ली।इस परिवहन वालों का नियम था कि महिला के साथ महिला को ही बिठाएंगे वरना जगह खाली रहेगी। सुबह का समय था कोई अकेली महिला तो मुसफरी नहीं कर रही होगी ऐसा सोच, मैं प्रार्थना कर रही थी की पूरी सीट पर मेरा ही राज्य हो कोई नहीं आएं तो आराम से फैल कर बैठ के आऊंगी।मेरी इच्छा के विपरीत आई एक महिला,मैं फैल के तो क्या सिकुड़के भी नहीं बैठ पाऊं इतनी फैली हुई।
उसकी टिकट खिड़की वाली सीट की थी तो उसे मेरे पांव पर पांव रख कर चलने का हक़ मिल गया हो वैसे ही पैर का मलीदा बनाते हुए निकल अपनी सीट पर जाके बैठी।बस चल पड़ी और उसे तो जुटें लगने लगे शायद बस और बस के ए. सी. की आवाज़ें लॉरी का काम कर रही थी,मधुर खर्राटों की आवाज आनी शुरू हो गई।और मेरी बैठने की जगह पर भी अतिक्रमण शुरू हो गया।कोहनी मेरी कमर पर प्रहार करने लगे और सर मेरे कंधों पर आसन ढूंढने लगा था।ये जुल्म 2 घंटों तक सहा और हाल्ट आया तो आगे जा कर कंडक्टर साब से बिनती की कि मेरी जगह बदल दें तो अच्छा रहेगा।लेकिन कोई जगह नहीं होने से इच्छा नहीं होते हुए भी वहीं बैठना पड़ा।शायद कंडक्टर साब ने कुछ सूचना दी होगी, शायद तो कुछ समोसे खा कर ज्यादा ऊर्जा की स्वामिनी बन आई थी वह हथनी ।चिंघाड़ कर आती हो वैसे कसमसाती हुई अपनी दोनों कुहनियों को हथियारों की तरह हिलाती सीट की और आ रही थी और बोलती हुई , “अपना बैग हटा के रखा करों,हमे पैरों में चुभता हैं। "मैने हथियार डाल दिए और वह छोटी कुंभकर्णी फिर से अपने नथूनों से आवाज़ें निकलती हूई अपनी पाशविक निद्रा का आनंद लेने लगी और मै सीट के छोर पर बैठ बस की हर हलन चलन के साथ ताल मिलाती अपने शहर जल्दी पहुंचने की प्रार्थना के साथ अपने सफर का आनंद(???) लेती रही।
अहमदाबाद