"सुंदर सुरों की नदियाँ जानें किस ओर मूड़ गई"
कभी मेरे देश में बहती बयार से खुशबू आती थी अमन के फूलों की, कौनसा मौसम कत्ले-आम की शमशीर साथ लाया जो रक्त रंजीत कर गया भूमि भारत की...
मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बनें हमारा इन सुंदर सुरों के सरगम की नदियाँ जानें किस ओर मूड़ गई, टूट गई अपनेपन की लय हरे, केसरिये में सिमट कर रह गई...
गूँजती थी भारत की वादियों से एकता और भाईचारे की तान, आज लहू-लुहान सी धरा गा रही है मरघट से उठती मरसिये की तान...
आरती अज़ानों सी पाक थी हर पर्व की रंगीनियाँ कभी, आज धर्मांधता में छंटते दुबक कर त्योहारों की रानाइयां रह गई...
चलो कड़ी से कड़ी जोड़े कोई इंसान की सोच को बदलने वाली, छेड़े कोई सरगम ऐसी जिसे सुन हवाओं में उठे भाईचारे की भावना और देश में अमन की लहर उठे...
रफ़ी ने गाए कान्हा के कई भजन और लता ने गाई कई रुबाईयां, क्यूँ जात-पात के नाम पर हर इंसान के दिल में नफ़रत की आँधी पले...
वक्त को मोड़ लो दिलों को जोड़ लो ले डूबेगी नफ़रत छोटी सी ज़ीस्त है साथ कुछ न आएगा चार कँधे और दो गज ज़मीन बस इतना सरमाया जोड़ लो...
गिरा दें दीवार एक बनकर चलो देश की बुनियाद मजबूत करें, क्या रखा है राग द्वेष में हरे केसरिये के बीच जूझ रहे धवल को उपर उठाकर अमन का उद्घोष करें...
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
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