व्याकुल अंतर- डॉ हरे कृष्ण मिश्र
January 13, 2022 ・0 comments ・Topic: Dr_Hare_krishna_Mishra poem
व्याकुल अंतर
प्रीत निभाती रात गई बित ,
जोड़ जोड़ कर सपने-अपने,बंद आंखों में मिलन यामिनी ,
हुई भोर तो साथ नहीं थी ।।
आकुलता मिलने की तुमसे,
विरह लिए मैं रात खड़ी थी ,
नियति कैसी चाल चली थी ,
मिलने के पहले भोर हुई थी ।।
सहज सरल जीवन बन कर ,
मिलन यामिनी जिंदगी जैसी,
सुख-दुख के दोनों तीरों से ,
जीवन जिया मिलकर दोनों ।।
प्रतिपल तेरा एहसास रहा है,
बिछड़ेंगे जीवन में दोनों ,
कहीं नहीं आभास मिला है ,
बांटेंगा दर्द कहां अब कौन।।?।।
संग जीने का शपथ हमारा ,
नियति के हाथों टूट गया है,
दूरदिन की घड़ियां गिन कर,
आज किनारे आ बैठा हूं ।।
दोनों के बीच में दूरी कितनी,
इसका तो अनुमान नहीं है ,
दुख दर्द का कहना भी क्या,
मूल्यांकन आसान नहीं है ।।
चलता आया हूं बिना तुम्हारे,
आगे बढ़ने का धैर्य नहीं है ,
संकल्प हमारा टूट रहा है ,
आगे का सुधि लेगा कौन ।।?।।
सजे सजाए कितने सपने,
टूट गए जीवन के मेरे ,
अनुशीलन करता करता मैं,
भूल गया अपने जीवन को ।।
रही प्रतीक्षा फिर भी तेरी
मिलने की सुधि बची हुई है,
आने-जाने का क्रम गौन है,
फिर भी प्रतीक्षा में रहते हैं ।।
कैसी मजबूरी जीवन की,
असंभव भी संभव सा है,
छोड़ो मेरी कल्पना अपनी,
आहत होकर हंस लेता हूं ।।
Post a Comment
boltizindagi@gmail.com
If you can't commemt, try using Chrome instead.