चाँद और मैं- सिद्धार्थ गोरखपुरी
January 25, 2022 ・0 comments ・Topic: poem Siddharth_Gorakhpuri
चाँद और मैं
अमावस की काली रातों में
उलझी हुई कई बातों में
न पूछ! किस तरहा रहते हैं
चाँद और मैं एक साथ
रातों में तनहा रहते हैं
वो आसमान में तनहा है
मैं इस जहान में तनहा हूँ
वो श्याम रात में उलझा है
मैं खुदकी बात में उलझा हूँ
सुनने वाला है कोई नहीं
खुद कहते हैं खुद सुनते है
चाँद और मैं एक साथ
रातों में तनहा रहते हैं
घना बादल रह रह कर
चाँद से झगड़ा करता है
फिर चाँद चमकने के खातिर
बादल से सुलहा करता है
चाँद और मैं एक जैसे है
जो वक़्त से सुलहा करते हैं
चाँद और मैं एक साथ
रातों में तनहा रहते हैं
वो रात में इधर से उधर
आकाश में भटका दिखता है
ठीक चाँद के जैसे ही
मन एक जगह न टिकता है
हम दोनों के ख़्वाबों के मोती
हर रात में बिखरा करते हैं
चाँद और मैं एक साथ
रातों में तनहा रहते हैं
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