यही कुछ फर्क है!- डॉ. माध्वी बोरसे!

यही कुछ फर्क है!

यही कुछ फर्क है!- डॉ. माध्वी बोरसे!
जब नहीं था हमारे पास अलार्म,
स्वयं से याद रखते थे सारे काम,
ना था मोबाइल फोन और व्हाट्सएप,
मिलते थे अपनों से, सुबह, शाम!

अनजानो से हालचाल पूछते हैं फेसबुक पर,
नहीं पता क्या हो रहा है, स्वयं के घर,
अपनों के लिए बिल्कुल समय नहीं,
नई पीढ़ी में आया कैसा असर!

बारिश की बूंदे और ठंडी हवा को छोड़,
ना सूरज की किरणें ना ही भागदौड़,
प्रकृति को महसूस करने की क्षमता हो गई कम,
यह जीवन का हे कौन सा मोड़!

गर्मी में ए.सी, ठंड में हीटर,
गर्मी में फ्रिज तो ठंड में गीजर,
शारीरिक शक्ति हो गई कम,
ना चल पाए हम दो-चार किलोमीटर!

देखें पूरी दुनिया को यूट्यूब मैं,
पढ़ाई करें मोबाइल के ई बुक में,
आंखों मैं कमजोरपन, सर्वाइकल और डिप्रेशन,
शरीर से नहीं ताकतवर पर दिमाग खूब है!

मानसिक रूप से लेते जाए ज्ञान,
पर भूले ना शरीर का रखना ध्यान,
जीवन में लेकर आए संतुलन ,
ना होते जाए सत्य से अनजान!!

डॉ. माध्वी बोरसे!
( स्वरचित व मौलिक रचना)
राजस्थान (रावतभाटा)

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