मन- डॉ.इन्दु कुमारी
December 09, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
मन
रे मन तू चंचल घोड़ासरपट दौड़ लगाता है
लगाम धरी नहीं कसके
त्राहि त्राहि मचाने वाली
जीवन की जो हरियाली
पैरों तले कुचल डाली
बेभट कर कहीं न छोड़ा
रे मन तू चंचल है घोड़ा।
मन के अंदर है मालिक
वही उनके है नाविक
छोड़ी पतवार ले डूबेगी
फजीहत करवा ही डाली
कहाँ जाएगा कोई न जाने
फुदक -फुदक कर तूने
हर सीमा लाँघ ही डाली
मन के साथ जो रे दौड़े
उनके भगवान है मालिक
नकेल कसनी है मन की
सद्गुण में इसको रमाओ
सदयुक्ति के वशीकरण से
संत शरण गली ले जाओ
रे मन इतना ना भरमाओ।
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