महँगाई - डॉ. इन्दु कुमारी
December 17, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
महँगाई
पर्याप्त नहीं है कमाई
कमर तोड़ दी महँगाईजनता कर रही है त्राहि
सुन लो सुनो रे मेरे भाई ।
चलें साग -सब्जी की मंडी
दिलरुबा है बहुत महँगी
है पैसे की बड़ी रे तंगी
तुझ तक कैसे पहुँचू रे संगी।
तुम्हारी ऊँची हुई दुकान
हमारी फीकी पड़ी मुस्कान
हमारा चोली दामन का साथ
महबूबा उड़ रही तू आकाश।
सुख सुविधा हुई रे पराई
छीन लोगी क्या तू तरूणाई
अंदर बेबसी भरी रुलाई
ऊपर दिखावे की है बड़ाई
लुटा दूं ज़िन्दगी की कमाई
साथ छोड़ो ना तुम हरजाई
आसमां छूती ये महँगाई
सुन लो सुनो रे मेरे भाई ।
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