हाय रे गंतव्य जीवन - डॉ हरे कृष्ण मिश्र
हाय रे गंतव्य जीवन
चली अचानक गई यहां से,
जिसका कोई विश्वास नहीं,
अंधकार में टटोल रहा हो ,
जैसे राही गंतव्य मार्ग को ।।
बाल अरुण के रथ पर देखा,
बैठ चली दूर तुम हम से ,
एहसास नहीं कह पाता हूं,
निशब्द बना अपना जीवन ।।
जीने का कोई अर्थ तो होता ,
मैं भी रोता चुपके चुपके ,
जाने अनजाने में किसको ,
दर्द बांट दूं बोलो अपना ।।
काश कोई तो पास में होता,
अपना जी मैं हल्का करता ,
गम नहीं कोई दर्द बांटने ,
पास खड़ा कोई मेरा होता ।।
कहने को जीवन है अपना,
एकांत मुझे अच्छा लगता है,
तेरी पीड़ा में अनुभव करता ,
गम होता है साथी अपना ।।
बहुत दूर तुम जा बैठी हो ,
नहीं है कोई और ठिकाना,
बीते दिन को गिन लेता हूं,
कल पर करता नहीं भरोसा ।।
आज लिखूंगा दर्द तुम्हारा ,
पर गीत नहीं मैं गा पाऊंगा,
लिखने को मैं लिख लेता हूं ,
पढ़ने पर आंसू आते हैं ।।
बड़ी विवशता मेरे जीवन की ,
काश किसी से कह पाता मैं,
जन्म जन्म का साथी तुम ही ,
फिर बनी हुई बेचैनी कैसी ।।??
आकुल अंतर उथल-पुथल है,
जीने का क्रम बचा कहां है ,
सोच सोच कर घबड़ाता हूं ,
क्या जीने का और राह है ??
व्याकुलता रही है मेरी ,
धरती की कैसी बेचैनी,
कहने और सुनने का ,
बचा अब दर्द मेरा है ।।
अपने गीतों के शब्दों में,
तेरे दर्दों को पिरोता हूं,
सरल शब्दों में कहता हूं,
अपना सब कुछ खोया हूं ।।
दिया था स्नेह जो तूने ,
वही तो मेरी दौलत है ,
पाने की ना और कोई,
बचा दिल में तमन्ना है ।।
नदी के दो किनारे हम,
मिलेंगे सिंधु तट जाकर,
इधर जलधार में बहकर,
चलेंगे जिंदगी भर हम ।।