मेरी बेटी
जब देखें कोमल हाथों को
बाजू के पास मेरे
एहसासों से भर गया था मन और ह्रदय दोनों मेरे
जो मांगा था रब से वही तो बाजू में मेरे धरा था
भूल सारी पीड़ा प्रसव की
खो गई में देख स्वप्न सी परी को
सुंदर कली सी ताकती मेरा ही चेहरा
पहचान ने की कोशिश कर रही थी वो
क्या यही हैं जिसने मान मन्नते
उसे बुलाया था घर अपने
घर की रौनक और उजाले सी वो
बढ़ती गई उम्र में छा गई वह परिवार में
प्यारी वह चाचा की पापा की दुलारी
भैया की वह सहयोगी बनी
और खेली उस के भी संग
बड़ी होती बेटी कब मां बन जाती हैं
पता न था खोई मां को बेटी ही में पाया हैं
वैसे भी बिदाई की घड़ी मुश्किल होती है
जब वो हो बेटी की असहनीय बन जाती हे
पर खुशी यह थी की उसने भी एक बेटी पाई हैं
देख दोनों को मैंने ये बात दोहराई
देखो आज मां भी आई बेटी भी बचपन बन के आई
जयश्री बिरमी
अहमदाबाद
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