कब तक मधुसूदन दौड़ेंगे....!!!
कब तक मधुसूदन दौड़ेंगे ।
द्रुपद सुता की लाज बचानें।।
दरबार सजा जब कौरव का ।
फिर तात भ्रात किसको जानें।।
हो गए यहाँ धृतराष्ट्र सभी ।
छिपकर दुर्योधन बैठा हो ।।
वह एक रहा होगा शकुनि ।
जब घर घर में शकुनि पैदा हो।।
धिक् !लाज नहीं आती तुमको ।
ऐसे में आँसू चुनती हो ।।
अरे ! तुम्हीं जननीं जिसकी ।
भयभीत उसी से होती हो ।।
यह नहीं तुम्हारी किस्मत में।
तुम टूट टूट कर यूँ बिखरो ।।
यह नहीं तुम्हारी फितरत में ।
संकुचित भाव और मौन बनो।।
तुम भी छाती रखती हो ।
झाँसी वाली रानी का ।।
तुम भी गरिमा रखती हो ।
लोपा ,मुद्रा और गार्गी सा ।।
तुम सीता हो खुद को जानो।
जो रावण वध कर लौटी है ।।
तुम दुर्गा हो पथ पहचानो ।
जब शस्त्र उठे शत्रु काँपे ।।
तुम काली हो बस निडर बनो।
रण में उतरो संहार करो ।।
तुम लक्ष्मी हो नारायण की ।
खुशहाल विश्व आबाद करो।।
तुम विजय पताका ले निकलो ।
खुद से खुद का अवलम्ब बनो ।।
साहस ,शौर्य और समता से ।
नव युग का निर्माण करो ।।
तुम ममता की अद्भुत प्रतिमा।
खुद से खुद की पहचान करो ।।
जो काँटे चुभते हों पथ में ।
उन काँटों को जड़ से काटो ।।
वह प्रस्तर क्या जो चढ़ा भवन ।
तुम सदा भवन की नींव बनो ।।
विश्वास करो युग बदलेगा ।
यह बिगुल ,शंख ,रण भेरी है ।।
तुम अबला नहीं सबल नारी ।
केवल जगनें की देरी है ।।
तुम एक अमिट अद्भूत प्रतिभा।
इस प्रतिभा को साकार करो ।।
इतिहास रचो तुम एक नया ।
अपनीं पहचान में रंग भरो ।।
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विजय लक्ष्मी पाण्डेय
एम. ए., बी.एड
.(हन्दी)
स्वरचित मौलिक रचना
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
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