Insan tyag sakta hai by Jitendra Kabir
September 30, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
इंसान त्याग सकता है
जब देखता हूं मैं
किसी स्वर्ण को
अपने दलित 'बॉस' या फिर
दलित सहयोगी के साथ बैठकर
भोजन करते समय
सदियों पुरानी छुआछूत की मानसिकता का
त्याग करते हुए,
तो उम्मीद करता हूं मैं कि 'बॉस' के प्रकोप
या फिर सहकर्मियों में
अपनी प्रगतिशील छवि के लिए
बाहरी मन से ही सही लेकिन एक दिन इंसान
इस छुआछूत की मानसिकता
को त्याग सकता है।
जब देखता हूं मैं
बहुत से स्वर्णों को
अपने दलित 'नेता' के स्वागत में
उसके चरणस्पर्श करने की होड़ में
धक्का-मुक्की करते हुए
या फिर अपना काम करवाने के लिए
अपने तथाकथित जाति-दंभ का
त्याग करते हुए,
तो उम्मीद करता हूं मैं कि नेता की 'पॉवर'
के प्रभाव से या फिर अपने
निज स्वार्थ की दरकार के कारण
बाहरी मन से ही सही लेकिन एक दिन इंसान
इस जातिवाद की मानसिकता को
त्याग सकता है।
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