Uphar kahani by Sudhir Srivastava

 कहानी
                      उपहार
   
Uphar kahani by Sudhir Srivastava

                

        आज रक्षाबंधन का त्योहार था।मेरी कोई बहन तो थी नहीं जो मुझे (श्रीश) कुछ भी उत्साह होता।न ही मुझे किसी की प्रतीक्षा में बेचैन होने की जरुरत ही थी और नहीं किसी के घर जाकर कलाई  सजवाने की व्याकुलता।

       सुबह सुबह ही माँ को बोलकर कि एकाध घंटे में लौट आऊंगा।माँ को पता था कि मैं यूँ ही फालतू घर से बाहर नहीं जाता था।इसलिए अपनी आदत के विपरीत उसनें कुछ न तो कुछ कहा और न ही कुछ पूछा।उसे पता था कि मेरा ठिकाना घर से थोड़ी ही दूर माता का मंदिर ही होगा।जहाँ हर साल की तरह मेरा रक्षाबंधन का दिन कटता था।

       मैं घर से निकलकर मंदिर के पास पहुँचने ही वाला था सामने से आ रही एक युवा लड़की स्कूटी समेत गिर पड़ी,मैं जल्दी से उसके पास पहुंचा, तब तक कुछ और भी लोग पहुंच गये।उनमें से एक ने स्कूटी उठाकर किनारे किया।फिर एक अन्य व्यक्ति की सहायता से उसे हमनें सामने की दुकान पर लिटा दिया।दुकानदार ने पानी लाकर दिया, मैनें उसके मुंह पर पानी के कुछ छींटे मारे, तब तक दुकान वाला पडो़स की दुकान से चाय लेकर आ गया।लड़की होश में थी नहीं इसलिए दुकानदार से एक चम्मच लेकर मजबूरन उसे दो चार चम्मच चाय पिलाया।लड़की थोड़ा कुनमुनाई जरूर पर न तो उसने आँख खोला और न ही कुछ बोल सकी।

         कई लोग अस्पताल ले जाने की मुफ्त सलाह दे रहे थे परंतु कोई साथ चलने को आगे नहीं आ रहा था।शायद मेरी तरह सभी पुलिस के लफड़े से दूर ही रहना चाहते रहे होंगें।दुकानवाला मुझसे बोला-बाबू जी!इसे अस्पताल ले जाइये या मेरी दुकान से हटाइये।मैं किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहता।

      मैनें स्कूटी उसकी दुकान के सामने खड़ा कराकर उसके जिम्में किया, जिसका उसने विरोध भी नहीं किया।स्कूटी की डिग्गी से उस लड़की का पर्स और मोबाइल निकाला, किसी ने विरोध भी नहीं किया शायद यह सोच कर कि चलो बला तो टली।

       तभी एक बुजुर्ग सा रिक्शा वाला वहाँ आ गया ,भीड़ और लड़की को देखकर वह सब समझ गया ।

   उसने मुझसे कहा- बाबू जी ! देर न करो ,चलो मैं आपको अस्पताल ले  चलता हूँ।

कुछ लोगों के सहयोग से लड़की को रिक्शे पर बैठाया और उसे पकड़ कर खुद बैठ गया।उम्र के लिहाज से रिक्शा वाला काफी तेज रिक्शा दौड़ा ने लगा।मुझसे बोला- बाबूजी घबड़ाओ नहीं ,सब ठीक होगा।तब तक हम अस्पताल में थे।

रिक्शेवाले ने किराया भी नहीं लिया बल्कि लड़की को इमरजेंसी तक पहुँचाने के बाद मुझसे बोला-आप चिंता न करो,जब तक बिटिया को होश नहीं आता, मैं यहीं हूँ।

       मैं उस गरीब रिक्शेवाले की सदाशयता के प्रति नतमस्तक हो गया और जल्दी से डाक्टर के पास जाकर पूरी बात बताई ।

डॉक्टर ने हिम्मत बधाई और बोला परेशान होने की जरुरत नहीं है ,बस आप कागजी कोरम पूरा कराइए।

 डॉक्टर ने उस लड़की से मेरा संबंध, नाम पता पूछा।

 एक क्षण के लिये मैं हिचिकिचाया जरूर ,परंतु समय रहते खुद को संयत करते हुए लड़की का काल्पनिक नाम और संबंध बहन का बताते हुए अपना पता लिखवाया।

        डॉक्टर ने लड़की का इलाज शुरु किया और मुझे दवाओं का पर्चा देते हुए जल्दी से दवा लाने को कहा।

मैं भागकर दवा लेकर डॉक्टर के पास आया और चिंतित सा डॉक्टर से पूछने ही वाला था कि डॉक्टर पहले ही बोल पड़ा ,घबड़ाने की कोई बात नहीं है।अभी एकाध घंटे में होश आ जायेगा।

             मुझे भी अब कुछ तसल्ली सी हुई, मैनें दरवाजे की ओर देखा ,रिक्शेवाला चिंतित सा मेरी ओर देख रहा था।मैनें हाथ उठाकर उसे आश्वस्त किया।

    थोड़ी देर में उसे शाम तक छुट्टी के आश्वासन के साथ वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया।

           अब मैनें रिक्शेवाले से चाय पीने कोे कहा-उसने पैसा लेने से साफ मना कर दिया और बाहर से दो चाय बिस्किट और पानी की बोतल लेकर आया।

    हम दोनों ने पानी पिया और चाय पीते हुए मैनें रिक्शेवाले से कहा-काका !एक बात कहनी है।

         रिक्शेवाला बोला -क्या बताओगे बेटा!यही न कि इस लड़की से तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं है।           हाँ काका,मगर.......।रिक्शेवाले ने मेरी हिचिकिचाहट को महसूस करते हुए कहा-जरुरी नहीं कि हर रिश्ता खून का ही हो।इंसानियत भी कोई चीज है।मैं वहीं जान गया था,तभी तो मैं तुम्हारे साथ हूँ।

लेकिन अब ये सोचो कि इसके माँ बाप परिवार पर क्या गुजर रही होगी।आखिर  जवान छोरी इतनी देर तक कहाँ होगी?

ये सोचकर बेचारे कितना परेशान होंगे।

हाँ काका।

तभी अचानक मुझे उसके पर्स का ध्यान आया। 

अरे काका!मैं तो भूल ही गया था।

हाँ बेटा हड़बड़ाहट में ऐसा हो जाता है।मैनें उसके फोन से उसका नंबर निकाला और फोन किया।

उधर से आवाज में हड़बड़ाहट सी थी,आवाज यकीनन किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ति की ही थी।मैं पहले यकीन कर लेना चाहता था।जब यह यकीन हो गया तब मैनें उनसे कहा -देखिए मेरा नाम श्रीश है,परेशान होने की जरूरत नहीं है।आपकी बेटी को हल्की सी चोट आयी है, मैं उसे अस्पताल ले आया हूँ।आप घबरायें नहीं और आराम से अस्पताल आ जायें,अभी थोड़ी देर मेंउसे  छुट्टी भी  मिल जायेगी।

      ऊधर से लगभग भीगे स्वर में बात कराने का आग्रह किया जा रहा था लेकिन मै विवश था, इसलिए समय की नजाकत को समझते हुए झूठ बोलने को विवश था कि डॉक्टर ने अभी उसे बात करने के लिए मना किया है।

       मेरी विवशता देख रिक्शेवाला भावुक होकर मेरे सिर पर आशीर्वाद की मुद्रा में अपना हाथ रख दिया।

फिर मैनें अपने एक मित्र को पूरी बात समझा कर माँ को अस्पताल लाने को कहा।

      थोड़ी देर में एक अधेड़ सी उम्र के व्यक्ति ने वार्ड में प्रवेश किया और निगाहें ढूंढते हुए उस लड़की की ओर टिका दी।फिर उसके पास आ गये और रोने लगे।काका ने उन्हें सँभाला फिर पूरी बात बताकर उन्हें तसल्ली दी।

          तब  तक श्रीश की माँ भी आ गई।मुझे ठीक देख उसे तसल्ली हुई।फिर मैनें उसे पूरी बात बताई और लड़की के पिता और काका का परिचय कराया।

           तब तक करीब दो घंटे हो चुके थे ।लड़की भी लगभग होश में आ चुकी थी।माँ ने उसके मुँह धुले और अपने आँचल से पोंछा।

तभी डॉक्टर आ गए, लड़की को  देखा और मुझसे बोले-अब आप अपनी बहन को घर ले जा सकते हैं।

लड़की थोड़ी चौंकी मगर चुप रही।

     फिर मैं माँ से बोला -माँ मैं इसकी दवा ले आता हूँ, फिर हम भी घर चलते हैं।उसने उठने का उपक्रम किया कि उस लड़की ने उसका हाथ पकड़ लिया और रो पड़ी।

        मैं समझ न सका और माँ को देखने लगा।

     माँ की आँखें भी अब भीग सी 

गईं थीं। उन्होंने ने उस लड़की के सिर पर हाथ फेरा, उसके आँसू पोंछे।

लड़की के पिता किंकर्तव्यविमूढ़ से सब देख रहे थे।

           थोड़ा संयत होने के बाद लड़की बोली - देखो भैया मेरा नाम इसकी उसकी नहीं श्रद्धा है,अधेड़ की ओर इशारा करते हुए बताया कि ये मेरे पापा हैं। यही हमारा परिवार है, मगर आज से अभी से मेरी इच्छा है कि मेरा परिवार मेरी माँ भाई और काका के साथ भरा पूरा हो।

      श्रीश कुछ बोल न सका बस अपनी माँ, श्रद्धा के पिता, श्रद्धा और रिक्शेवाले काका को बारी बारी से देखता जैसै उनके भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था।श्रद्धा के पापा अपनी भीगी आँखों से बेटी की भावनाओं को  जैसे मौन स्वीकृति दे रहे थे।

    श्रीश की मां रिक्शेवाले काका की ओर देख रही थीं, जैसे परिवार के बुजुर्ग की सहमति माँग रही हों।

काका ने अपने आँसुओं को  पोंछते हुए सिर हिलाकर स्वीकृति सी प्रदान कर दी।     श्रीश की माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू से एक टुकड़ा फाड़कर श्रद्धा की ओर बढ़ाया ,श्रद्धा ने बिना देरी उसे लपका और श्रीश की सूनी कलाई पर बांध कर उसके गले लग कर रो पड़ी। श्रीश उसके सिर  हाथ फेरते हुए अपने आँसुओं को पीने की नाकाम कोशिश कर रहा था।

        श्रीश  और श्रद्धा को रक्षाबंधन का अनमोल उपहार मिल चुका था।कुछ पलों तक सभी मौन थे, वार्ड के लोग इस दृश्य को देखकर खुश हो रहे थे।

  थोड़ी देर बाद श्रीश की माँ बोलीं कि अब अगर भाई बहन का प्रेमालाप खत्म हुआ हो तो अब घर भी चलें। इस पर समूचा वार्ड खिलखिलाकर हँस पड़ा।श्रद्धा ने माँ के आँचल में खुद को छिपा लिया।                                           👉सुधीर श्रीवास्तव    

         गोण्डा(उ.प्र)

     8115285921

@स्वरचित, मौलिक




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