बदमाशी
आई बदमाश बौछरे,भिगोती हुए चौबारे,
दौड़ के करो बंद खिड़की,
उड़ती चुन्नी खिड़की के पल्ले में अटकी।
दौड़ के लिए सूखते कपड़े समेट,
और दौड़ कर सिमटती सी भागी।
नहीं छोड़ा उसने कुछ सुखा,
मेरा व्यवहार उससे हुआ रूखा।
गस्साई और पटक के पैर,
सोचा उसे क्या हैं कपड़ों से बैर।
दो दिन नही धो पाई क्यों की बदरी थी छाई।
आज हिम्मत जुटाई और मशीन लगाई
और
आई बदमाश बौछारे
भिगोती हुई चौबारे।
समेटे कपड़े घर में सुखाए,
जैसे कदम के पेड़ लगाए।
बिन कनैया जैसे चिर हो चुराए,
घर ऐसे ही भ्रांति लगाए।
नहीं यमुना तट ,नहीं कनैया,नहीं राधा और न गोपी वृंद
फिर क्यूं घर मेरा बन गया है फिर से कदम्ब ।
जयश्री बिर्मी
निवृत्त शिक्षिका
अहमदाबाद
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