Story parakh | परख
"क्या हुआ दीपू बेटा? तुम तैयार नहीं हुई? आज तो तुम्हें विवेक से मिलने जाना है।" दीपिका को उदास देखकर उसके दादा जी ने उससे पूछा।"तैयार ही हो रही हूँ दादू।" दीपिका ने बुझे मन से कहा।
"पर तुम इतनी उदास क्यों हो?"
"पापा ने मुझे कहा है कि आज ही विवेक से मिलकर शादी के लिए कन्फर्म कर दूं।"
"तो इसमें प्रॉब्लम क्या है बेटा?"
"आप ही बताओ दादू! एक बार किसी से मिलकर उसे शादी के लिए कैसे फाइनल कर सकते हैं ?"
"तो एक-दो बार और मिल लेना। मैं तुम्हारे पापा से बात कर लूंगा।"
"पर दादू एक-दो बार में तो हर कोई अच्छा ही बनता है।" दीपिका ने मुँह बनाते हुए कहा।
"अच्छा ये सब छोड़, मुझे कुछ खाने का मन कर रह है तो पहले ऐसा कर मेरे लिए पका फल ले आ।"
दीपू गई और किचेन से एक पीला-पीला मुलायम अमरूद ले आई, "ये लीजिए दादू आपका फल।"
"दीपू बेटा एक बात बता, किचेन में तो कितने सारे अमरूद थे, फिर तू यही वाला क्यों लाई?"
"आपने ही तो कहा था पका हुआ फल लाना।"
"पर तुझे कैसे पता ये पका हुआ है?"
"ये क्या बात हुई दादू?" दीपिका ने झुंझलाते हुए कहा।
"अरे बेटा बता न? तूने पके फल की पहचान कैसे करी?"
एक तो दीपिका पहले से ही परेशान थी उसपर से दादा जी के सवालों से उसे और चिड़चिड़ाहट हो रही थी फिर भी उसने जवाब दिया, " क्योंकि पका हुआ फल एक तो नर्म हो जाता है, दूसरा वह मीठा हो जाता है और तीसरा उसका रंग भी बदल जाता है।"
"बिल्कुल सही! ठीक इसी तरह एक अच्छे व्यक्ति की भी तीन पहचान होती है, पहली उसमें नम्रता, दूसरी उसकी वाणी मे मिठास और तीसरी उसके चेहरे पर आत्मविश्वास का रंग। समझी, दीपू बेटा?"
"जी दादू! मैं आपका मतलब समझ गई।" दीपिका ने मुस्कुराते हुए कहा।
"चलो अब ज्यादा मत सोचो, जल्दी से तैयार होकर जाओ, विवेक भी इसी कश्मकश होगा।"
About author
सोनल मंजू श्री ओमरराजकोट, गुजरात
تعليقات
إرسال تعليق
boltizindagi@gmail.com