वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में विकास बिश्नोई की कहानियों का महत्व
किसी भी राष्ट्र एवं समाज का भविष्य बच्चों पर निर्भर होता है।बाल्यावस्था व्यक्तित्व के निर्माण के लिए सबसे महत्वपूर्ण अवधि होती है। इस अवधि के दौरान बच्चों में जिज्ञासा, अनुकरणशीलता एवं कल्पनाशीलता बहुत अधिक होती है।ऐसे में बाल साहित्य बच्चों को सही शिक्षा व दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।साहित्यकारों ने बाल साहित्य की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को स्वीकार किया।“बच्चे देश के भावी कर्णधार हैं।यदि उनका सही मानसिक विकास न हो, उनके चरित्र निर्माण को अनदेखा कर दिया जाये, उनमें नवचेतना, नवयुग के निर्माण की नींव न रखी जाये तो भविष्य में वे अपने देश को ऊँचा उठाने, उसे अखण्डित रूप से सुरक्षित रखने में कैसे सक्षम हो सकेंगे।”1
आधुनिकता की चकाचौंध में आज की पीढ़ी अपनी संस्कृति व संस्कारों को दरकिनार कर रही है जिसका कारण है- नैतिकता एवं शिष्टाचार की कमी।दादी-नानी के माध्यम से सुनी जाने वाली कहानियाँ जीवन जीने की कला सिखाती थी, सही और गलत के बीच भेद बताती थी।ये कहानियाँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं थी बल्कि इनके माध्यम से बच्चों में संस्कार के बीज अंकुरित किये जाते थे।आज के बच्चों का बचपन दादी-नानी के स्नेह एवं कहानियों से वंचित है।वे इन कहानियों को सुनना नहीं चाहते क्योंकि उनका अधिकांश समय इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के साथ व्यतीत हो रहा है।आधुनिक पीढ़ी यंत्रों के साथ समय व्यतीत करते-करते स्वयं भी यंत्र समान संवेदनहीन हो गई है ऐसे में वर्तमान गतिशील परिदृश्य में बाल साहित्य की उपादेयता बढ़ गई है।बाल साहित्य को परिभाषित करते हुए सोहनलाल द्विवेदी लिखते है- “सफल बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे सरलता से अपना सकें और भाव ऐसे हो, जो बच्चों के मन भाए।यों तो अनेक साहित्यकार बालकों के लिए लिखते रहते हैं, किन्तु सचमुच जो बालकों के मन की बात, बालकों की भाषा में लिख दें, वही सफल बाल साहित्य लेखक है।”2
युवा साहित्यकार विकास बिश्नोई जी ने अपने बाल कहानी संग्रह ‘आओ चले उन राहों पर’ में ऐसी कहानियों का सृजन किया है जो बच्चों को न केवल सत्प्रेरणा देती है अपितु मनोरंजन के साथ उन्हें एक आदर्श नागरिक बनने की दिशा में अग्रसर करती है।इस कहानी संग्रह में 35 कहानियाँ शामिल है और ये कहानियाँ बच्चों में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से शिष्टाचार एवं नैतिक संस्कारों का बीजारोपण करती है।इनकी प्रत्येक कहानी में एक उपदेश अंतर्निहित है।बिश्नोई जी ने अपनी कहानियों में मात्र समाज का चित्र ही उपस्थित नहीं किया बल्कि समाज को एक नवीन दृष्टि प्रदान करने का सार्थक प्रयास किया है।एक अच्छा बाल साहित्य बच्चों को आस-पास घटित होती घटनाओं को नए संदर्भों में देखने में सहायता प्रदान करता है।डॉ. शकुंतला कालरा कहती है- “साहित्य जीवन का परिष्कार और पकड़ है इस विचार चिंतन में बच्चों के विकास में बाल साहित्य और उसे रचनेवाले साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और रहेगी।”3
धन के अभाव में मानव जीवन की कल्पना करना भी असंभव है।प्रत्येक व्यक्ति के लिए धन एवं समय दोनों का ही विशेष महत्व है। जिस व्यक्ति ने धन एवं समय की अहमियत को समझ लिया उसने अपना जीवन संवार लिया। आज के समय में बच्चे धन की महत्ता न समझकर अनावश्यक वस्तुओं पर धन खर्च करते है ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि बच्चों को धन के महत्व से परिचित कराया जाए जिससे भविष्य में उन्हें निवेश संबंधी निर्णय लेने में सहायता मिल सके।विकास बिश्नोई जी की कहानी ‘नानी से बचत की सीख’ बच्चों को न केवल धन और समय की कीमत से अवगत कराती है अपितु उनमें बचत की भावना भी जागृत करती है।नानी आशु को धन के सदुपयोग की शिक्षा देते हुए कहती है- “बेटा जिंदगी में जो अपने पास आई लक्ष्मी का सोच समझ कर उपयोग में लाता है वह हमेशा जिंदगी में सफल होता है।”4 नानी की सीख को अपनाकर आशु ने धन और समय के महत्व को समझा और तभी से उसने धन संचय करना शुरू कर दिया।बचपन में दी गई नानी की सीख का आशु के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।आशु ने अपने बड़े भाई राहुल के विवाह पर एकत्रित की गई धनराशि से भाई-भाभी को उपहार स्वरूप अंगूठी भेंट की।
बिश्नोई जी की कहानी ‘रक्तदान का महत्व’ न केवल बच्चों को बल्कि युवाओं को भी रक्तदान के प्रति जागरूक करती है।चौथी कक्षा में पढ़ते चिंटू को उसके पिता महेंद्र ‘रक्तदान’ के महत्व से अवगत कराते है।“मैं तुम्हें अस्पताल इसलिए लेकर आया था बेटा, यहां तुमने कितने ही मरीज देखे, जो किसी ना किसी दुर्घटना में घायल हो गए और अधिकतर को अब खून की आवश्यकता है।जो खून ऐसे रक्तदान शिविर में लोग दान करते हैं, वो ऐसे ही अस्पतालों में लाखों जान बचाने के काम आता है।इसे एक पुण्य का काम कहते हैं, बेटा।”5 प्रतिक्षण किसी न किसी व्यक्ति को रक्त की आवश्यकता होती है।अनगिनत जरूरतमंदों का जीवन बचाने के लिए दान किया गया रक्त ही काम आता है।रक्तदान जीवन रक्षा एवं पुण्य का कार्य है।लेखक की यह कहानी बच्चे, युवा एवं समाज को रक्तदान के प्रति प्रोत्साहित करती है।
भारतीय संस्कृति में बड़े-बुजुर्गों के मान-सम्मान को महत्व दिया जाता रहा है।वर्तमान दौर में नयी पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी के बीच होते वैचारिक मतभेद अनेकों बार विकराल रूप ले लेते है।माता-पिता अपनी संतान को उच्च शिक्षा दिलाने एवं बेहतर भविष्य देने का यथासंभव प्रयास करते है।अपनी इच्छाओं को त्यागकर अपनी संतान के प्रति पूरी जिम्मेदारी निभाते है किन्तु उन्हीं संतानों के द्वारा बुजुर्ग माता-पिता की अवहेलना की जा रही है।आखिरकार आज समाज में बुजुर्गों की ऐसी स्थिति के पीछे मुख्य कारण क्या है?उत्तर यही है कि आज कल के बच्चों के हृदय में अपने माता-पिता के प्रति प्रेम और सम्मान नहीं है।यह बेहद अफसोस की बात है कि अकेले माता-पिता अपनी कई संतानों का पालन-पोषण कर लेते है किन्तु कई संतान मिलकर भी अपने माता-पिता की देखभाल करने में सक्षम नहीं है।
बच्चों के आसपास घटित होती घटनाओं का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, वे जैसा देखते है वैसा ही सीखते है। भविष्य में नई पीढ़ी अपने माता-पिता का सम्मान करें इसलिए बचपन से ही उन्हें अपनी संस्कृति के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है।बिश्नोई जी की कहानी ‘जड़’ भी समाज में वृद्धों की दयनीय स्थिति के यथार्थ का वर्णन करती है साथ ही बच्चों में परिवार के प्रति कर्तव्य की भावना उत्पन्न करती है।यह एक ऐसी कहानी है जहां बेटा रमेश अपने घर में हो रहे क्लेश की जड़ अपने माता-पिता को मानता है और उन्हें घर से बाहर निकाल देता है। उत्कर्ष द्वारा कहे गए शब्द ‘जड़’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट करते है- “मां फिर पापा का एक पूरा हाथ काट के अलग ही कर दो ना, दर्द जड़ से खत्म हो जाएगा ना, जैसे दादा दादी को घर से निकालकर लड़ाई को जड़ से खत्म कर दिया था।”6 जिस प्रकार किसी पौधे के लिए उसका जड़ का होना अनिवार्य है ठीक उसी प्रकार माता-पिता वो जड़ होते है जिसके बिना जीवन का कोई महत्व नहीं रह जाता है।फिर किस प्रकार रमेश का बेटा उत्कर्ष उसे अपनी गलती का एहसास दिलाता है और पुनः अपने दादा-दादी को घर लाने में सफल होता है इसका सुंदर चित्रण किया गया है।माता-पिता अपने बच्चों को हमेशा स्वयं से ऊपर रखते है ऐसे में बच्चों का यह परम कर्तव्य बनता है कि वृद्धावस्था में उनका सहारा बने ना कि उन्हें दर-ब-दर भटकने के लिए बेसहारा छोड़ दे।बिश्नोई जी ने अपनी कहानियों में पारिवारिक व सामाजिक घटनाओं के यथार्थ का वर्णन इस प्रकार से किया है जिससे बच्चों के जीवन मूल्यों का विकास हो।शंकर सुल्तानपुरी लिखते है- “आज जब मानव मूल्यों का विघटन हो रहा है, नैतिक मूल्य गिर रहे हैं।स्वार्थ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता का बोलबाला है और भारतीय संस्कृति की गरिमा धूमिल हो रही है, ऐसे समय में बाल साहित्यकारों की भूमिका बड़ी अहम है।उन्हें ऐसे बाल साहित्य सृजन की ओर उन्मुख होना है जो क्षणिक मन बहलाव का न होकर स्थायी रूप से बच्चों के चरित्र विकास में, उनका मनोबल ऊँचा करने में प्रेरक सिद्ध हो।”7
वर्तमान समय में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के कारण मानव जीवन सरल हुआ है किन्तु इसके अत्यधिक प्रयोग के कारण कई नकारात्मक प्रभाव भी पड़े है।बिश्नोई जी की कहानी “मोबाइल है ना” जहां एक और मोबाइल की अनेकों विशेषताओं को सिद्ध करती है वहीं दूसरी तरफ उसके हानिकारक पहलुओं से भी अवगत कराती है। इस कहानी में गाँव से आई सचिन की माँ पारिवारिक सदस्यों को मोबाइल फोन में व्यस्त देखकर चिंतित होती है। सचिन अपनी माता जी को मोबाइल की विशेषताएँ गिनाता है।वह मोबाइल के द्वारा ऑनलाइन सुविधाओं के विषय में बताता है तब उसकी माँ द्वारा किए जाने वाले प्रश्न उसे विचलित कर देते है।मोबाइल द्वारा दुनियादारी, संस्कार एवं मित्रता आदि निभा सकने का प्रश्न उसे निरूत्तर कर देता है। इसके बाद वह अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हो जाता है।“अरे मां, आजकल सब ऑनलाइन मोबाइल से हो जाता है।कहीं आने जाने की जरूरत नहीं होती।दुनियादारी, संस्कार, मित्रता वगेरा सब क्या, मां ने हैरानी से पूछ।लेकिन इस बार सचिन के पास कोई जवाब नहीं था।थी तो बस अपने बच्चों के भविष्य की चिंता।”8
प्रत्येक बालक को उसकी प्रतिभा के आधार पर अपनी क्षमता का विकास करने का अवसर प्राप्त होना चाहिए किन्तु हमारे समाज का यह कटु सत्य है कि आज भी समाज में लैंगिक असमानता की समस्या मौजूद है।इसके कारण महिलाओं को समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते है।समाज की इसी समस्या को व्यक्त करती बिश्नोई जी की कहानी ‘लड़का और लड़की में फर्क है’।बेटियों को समान अधिकार दिलाती बिश्नोई जी की कहानी ‘बेटियां’ है।आज तीव्र आधुनिकरण ने सर्वाधिक नुकसान प्रकृति को पहुँचाया है। मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर रहा है जिससे पर्यावरण संकट बढ़ गया है।प्रदूषित पर्यावरण संपूर्ण मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरनाक है।इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब मनुष्य ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है तब-तब उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है।कोरोना महामारी इसका एक उदाहरण है जिसने न केवल लोगों की जान ली बल्कि मानव जीवन की गति को भी मंद कर दिया। इसका जिक्र लेखक ने अपनी कहानी ‘आदत से मजबूर’ में किया है।इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पर्यावरण संरक्षण हेतु लोगों को जागृत एवं उत्साहित करने का प्रयास किया है।
विकास बिश्नोई जी आधुनिक युग के प्रतिभासंपन्न लेखक है।उन्होंने आधुनिकता बोध एवं समसामयिक समस्याओं से रु-ब-रु कराने वाली बालमन के अनुरूप कहानियाँ लिखी है।लेखक ने अपनी कहानियों में गंभीर विचारों को सरल भाषा में अभिव्यक्त किया है।इन कहानियों में कल्पना के साथ-साथ यथार्थ का समन्वय किया है जिससे बालमन आहत न हो एवं जीवन के यथार्थ से भी परिचित हो। उनकी ये कहानियाँ बच्चों में न केवल मानवीय मूल्यों का विकास करती है बल्कि साथ-साथ देश, समाज एवं पर्यावरण के प्रति जागरूक भी करती है।
संदर्भ-ग्रंथ
1)भारतीय बाल साहित्य के विविध आयाम: सं.विनोद चन्द्र पांडेय, पृ.सं-35
2) हरिकृष्ण देवसरे, हिन्दी बाल साहित्य एक अध्ययन, आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली, वर्ष 1969, पृ.सं-07
3)शकुंतला कालरा, हिन्दी बाल साहित्य विचार और चिंतन-नमन प्रकाश, नई दिल्ली, 2014, पृ.सं- 09
4)विकास बिशनोई, आओ चले उन राहों पर, नानी से बचत की सीख, पृ.सं-16
5)वही, रक्तदान का महत्व, पृ.सं- 24-25
6)वही, जड़, पृ.सं-37-38
7)सुरेन्द्र विक्रम हिन्दी बाल पत्रकारिता:उद्भव और विकास साहित्य वाणी, इलाहबाद, वर्ष 1991, लेखक द्वारा लिखे गए शंकर साक्षात्कार से पृ.सं-14
8)विकास बिश्नोई, आओ चले उन राहों पर, मोबाइल है ना, पृ.सं- 19
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क्षत्रिय दीपिका जितेन्द्र
पीएच.डी शोधार्थी
श्री गोविंद गुरु विश्वविद्यालय गोधरा(गुजरात)
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