कविता –औरत संघर्ष

कविता –औरत संघर्ष

कविता –औरत संघर्ष
मेरी दोस्त! जब मैंने तुम्हें पढा़,
तब मुझे एक जीवंत स्त्रीत्व का बीता हुआ कल स्मरण हो आया..
राजनीतिक साहित्य&साहित्यिक राजनीति के सम्पूर्ण लोकोन्मुखी साहित्य में
वासनात्मक आँखें,
जो इस आकाँक्षा में निरत हैं कि उतरते कपडों में सराबोर कर दे ,
मेरी राक्षसी रूह को किसी बंद कमरे में।

और जो सवाल पैदा करती है बच्चों की तरह
अपनी अस्मिता रूपी देह को लेकर
तो क्या हम महसूस कर सकते हैं कि वह सचमुच स्वतंत्र है?
अस्तित्ववादी तन से,
मोहनी मन व सौंदर्य रूपी धन से...

नदी, औरतों को निर्भीकता का रंग रूट
प्रोवाइड कराती है
वो प्रवाहित होकर
जड़ताओं को नष्ट कर देती है ...जिसमें वह वर्षों से जकड़ी थी...
अब उसे क्रास कर
हारने की प्रत्येक जंग को
जीतने का रणक्षेत्र बना रही है......

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भास्कर दत्त शुक्ल  बीएचयू, वाराणसी
भास्कर दत्त शुक्ल
 बीएचयू, वाराणसी

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