शब्दों की नग्नता ढ़ांकने का सर्वोच्च अदालत का प्रयास

शब्दों की नग्नता ढ़ांकने का सर्वोच्च अदालत का प्रयास

शब्दों की नग्नता ढ़ांकने का सर्वोच्च अदालत का प्रयास
स्त्री जन्म से ही स्त्री नहीं होती, उसे स्त्री बनाया जाता है
भारत की सर्वोच्च अदालत ने भाषा से लैंगिक रूढ़ियों ( जेंडर स्टीरियोटाइप्स) हटाने के लिए एक हैंडबुक जारी की है। उसमें महिलाओं से जुड़े ऐसे शब्दों की सूची है, जो हमारी आम भाषा में सामान्य हो गए हैं और जो कानूनी भाषा में भी देखने को मिलते हैं। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड ने इस हैंडबुक का विमोचन करते हुए कहा था कि "मैं ने ऐसे आदेश देखे हैं, जिनमें महिलाओं के लिए चोर, रखैल जैसे शब्दों का उपयोग हुआ है। जबकि इसकी अपेक्षा अच्छे और सामान्य शब्द उपलब्ध हैं।"
सर्वोच्च अदालत की सूचना के अनुसार, अदालती भाषा में अब कुंवारी मां के बदले खाली मां, गुड वाइफ और बैड वाइफ के बदले खाली वाइफ, रखैल के बदले पुरुष से संबंध रखने वाली स्त्री, प्रोस्टिट्यूट के बदले सेक्सवर्कर, हाऊसवाइफ के बदले होममेकर लिखा जाएगा।
शब्दों के ये बदलाव भले अदालतों के लिए हों, पर सर्वोच्च अदालत का यह निर्णय बाकी समाज के लिए भी प्रेरणादायक है। इससे स्त्रियों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले शब्दों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। जो उनके लिए घरों में, काम करने के स्थानों पर, सड़कों पर और बाजारों में बोले जाते हैं।
भाषा के प्रति हमेशा से यह शिकायत रही है कि यह स्त्री विरोधी है। शायद जब से भाषा की उत्पत्ति हुई, तब से इसका अधिकतर उपयोग पुरुषों के हाथ में रहा है। (प्राचीन काल में किताबें लिखने या पढ़ने वाले मात्र पुरुष ही थे) इसलिए उनमें स्त्रियों की निश्चित पहचान के लिए विशेष शब्द और वाक्यप्रयोग आ गए, पर पुरुषों के लिए ऐसा नहीं हुआ।
सभ्य समाज का विकास होने से पहले मनुष्य कबीलों में रहता था और जंगल के कानून के अनुसार, उनके बीच सर्वोपरिता का संघर्ष रहता था। इसमें कबीले के सदस्यों की संख्या पर हार-जीत तय होती थी। उस समय स्त्रियों की भूमिका प्रजनन संख्या बढ़ाने की थी, जिससे कबीले का संख्या बल बढ़े। ऐसा न हो सके, इसके लिए कबीले आपस में स्त्रियों को निशाना बनाते थे। परिणामस्वरूप स्त्रियों को चार दीवारी के अंदर सुरक्षित रखने का ट्रेंड चल पड़ा। इससे सार्वजनिक जीवन पूरी तरह पुरुषों के हाथ में आ गया और घरेलू जीवन स्त्रियों के हिस्से में।
मानव इतिहास में यह देखा गया है कि शारीरिक क्षमता का विकास भी पुरुषों के पक्ष में रहा और उन्होंने ही संगठित समाज की रचना की। इसमें उन्होंने खाने-पीने, काम करने और संगठित होने की जो अलग-अलग विधाएं विकसित कीं, उसमें भाषा भी थी। भाषा की उत्पत्ति का इतिहास कहता है कि एक-दूसरे के साथ संदेशों और विचारों के लेनदेन की जरूरत के लिए भाषा का जन्म हुआ था और अधिकतर मामले पुरुषों के वर्चस्व के अंतर्गत थे, इसलिए भाषा भी पुरुषों पर केंद्रित रही। सामाजिक व्यवस्था में स्त्री का स्थान नीचा था, इसलिए भाषा में भी यह समानता देखने को मिली। इसी वजह से यह लिंगभेद आज तक चला आ रहा है। (लिंग शब्द को ही लो, वैसे तो यह जेंडर न्यूट्ल है, पर बाद में योनि-भेद शब्द क्यों नहीं?)
जैसे कि गालियां। दुनिया की तमाम भाषाओं में गालियां हैं। पर ज्यादातर गालियां स्त्रियों को लक्ष्य कर के ही हैं। स्त्री कबीले की इज्जत है और उसे अन्य से बचा कर रखना है, यह सदियों पुरानी पुरुष सत्तात्मक मानसिकता के कारण उसका जीवन अंर इज्जत-आबरूसब कुछ स्त्री की योनि के साथ जुड़ गया। परिणामस्वरूप भाषा में ऐसे शब्द विकसित हो गए जो स्त्री को शीचा दिखाने अथवा उसका दमन करने की भावना से संबंधित थे।
भारत में आदिवासी लेखक के रूप में प्रसिद्ध राजस्थान के पूर्व डीआईजी हरिराम मीणा का यह दावा है कि किसी भी आदिवासी भाषा में स्त्री विरोधी गालियों के लिए कोई भी शब्द नहीं है। इसी तरह न तो बलात्कार अथवा दुष्कर्म के लिए कोई शब्द है। अगर उनका यह दावा सच है तो आदिवासी समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मान और समानता का भाव होना चाहिए। तो क्या आदमी जैसे जैसे सभ्य होता गया, वैसे वैसे उसकी भाषा में स्त्रियों के लिए अपशब्द बढ़ते गए?
भाषा में लिंग (जेंडर) को नर और नारी के द्विसंग (बाइनरी) में ही देखने को आया है, जिस के किसी तीसरे लिंग को पहचान नहीं मिली। यह तो अभी कुछ दशकों से तीसरे लिंग के लिए वैकल्पिक शब्द प्रचलित हुए हैं। अभी भी सरकारी दस्तावेजों में उनकी गणना 'अन्य' लिंग में होती है। भाषा पुरुष-केंद्रित होने से स्त्रियों के लिए तमाम शब्द पुरुषों के लिए उपयोग में आने वाले शब्दों से बने हैं। समाज में लगभग हर स्तर पर पुरुष सर्वनाम का प्रयोग होता है।
जैसे कि शिक्षक, लेखक, अभिनेता, मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सरपंच, मुखिया, चेयरमैन, अध्यक्ष, नेता आदि शब्दों के प्रयोग में सभी के लिंग पुरुषं आए है है। इसी के साथ चेयरपर्सन, अध्यक्षा, महोदया, ऐक्ट्रेस, लेखिका, शिक्षिका जैसे शब्द चलन में आए हैं।
पर सोचने वाली बात यह है कि भाषा में ऐसे जेंडर न्यूट्ल शब्द क्यों नहीं आए जिनमें लिंग भेद न हों और जिनमें 'वह' और 'उसकी' की उलक्षन न हो? यूरोप के अमुक देशों में काफी समय से जेंडर न्यूट्ल शब्दों को लाने की चर्चा हो रही है।
यूरोप में नारीवाद का परचम लहराने वाले फ्रेंच लेखक और विचारक सीमोन द बुवा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द सेकेंड सेक्स' में लिखा था कि 'स्त्री जन्म से स्त्री नहीं होती, उसे स्त्री बनाया जाता है।' बुवा का तर्क ऐसा था कि स्त्रीत्व बायोलॉजी या साइकोलाॅजी में से नहीं आता, सामाजिक चलन और रिवाजों से आता है।
ऑक्सफर्ड रिसर्च इन साइक्लोपीडिया आफ कम्युनिकेशन में काम करने वाली मिशेल मेनेगाति और मोनिका रूबिन के अनुसार 'भाषा समाज में लैथगिक असमानता बढ़ाने का सशक्त माध्यम है। भाषा के कारण ही समाज में लैंगिक असमानता पोषित होती है और फिर बढ़ती जाती है। जिन देशों में भाषा लिंग सूचक नहीं है अथवा कम है, वहां लैंगिक समानता अधिक है।
भारत में अधिकतर भाषाएं स्पष्ट रूप से लिंगसूचक हैं। जैसे कि आई एम गोइंग का हिंदी अनुवाद 'मैं जाती हूं।' अथवा 'मैं जाता हूं।' जबकि भारतीय भाषाओं में ऐसा नहीं है। हिंदी में न्यूट्ल जेंडर नहीं है। जबकि अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं है।


वीरेंद्र बहादुर सिंह भाषाओं में गालियां हैं। पर ज्यादातर गालियां स्त्रियों को लक्ष्य कर के हैं। स्त्री कबीले क इज्जत है और उसे अन्य से बचा कर रखना है, यह सदियों पुरानी पुरुष सत्तात्मक मानसिकता के कारण उसका जीवन और इज्जत-आबरू सब कुछ स्त्री की योनि के साथ जुड़ गया। परिणामस्वरूप भाषा में ऐसे शब्द विकसित हो गए, जो स्त्री को नीचा दिखाने अथवा उसका दमन करने की भावना से संबंधित थे।
भारत में आदिवासी लेखक के रूप में प्रसिद्ध राजस्थान के पूर्व डीआईजी हरिराम मीणा का यह दावा है कि किसी भी आदिवासी भाषा में स्त्री विरोधी गालियों के लिए कोई भी शब्द नहीं है। इसी तरह न तो बलात्कार अथवा दुष्कर्म के लिए कोई शब्द है। अगर उनका यह दावा सच है तो आदिवासी समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मान और समानता का भाव होना चाहिए। तो क्या आदमी जैसे-जैसे सभ्य होता गया, वैसे-वैसे उसकी भाषा में स्त्रियों के लिए अपशब्द बढ़ते गए?
भाषा में लिंग (जेंडर) को नर और नारी के द्विसंग (बाइनरी) में ही देखने को आया है, जिस के कारण किसी तीसरे लिंग को पहचान नहीं मिली। यह तो अभी कुछ दशकों से तीसरे लिंग के लिए वैकल्पिक शब्द प्रचलित हुए हैं। अभी भी सरकारी दस्तावेजों में उनकी गणना 'अन्य' लिंग में होती है। भाषा पुरुष-केंद्रित होने से स्त्रियों के लिए तमाम शब्द पुरुषों के लिए उपयोग में आने वाले शब्दों से बने हैं। समाज में लगभग हर स्तर पर पुरुष सर्वनाम का प्रयोग होता है।
जैसे कि शिक्षक, लेखक, अभिनेता, मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सरपंच, मुखिया, चेयरमैन, अध्यक्ष, नेता आदि शब्दों के प्रयोग में सभी के लिंग पुरुष से आए हैं। इसी के साथ चेयरपर्सन, अध्यक्षा, महोदया, ऐक्ट्रेस, लेखिका, शिक्षिका जैसे शब्द चलन में आए हैं।
पर सोचने वाली बात यह है कि भाषा में ऐसे जेंडर न्यूट्ल शब्द क्यों नहीं आए, जिनमें लिंग भेद न हों और जिनमें 'वह' और 'उसकी' की उलझन न हो? यूरोप के अमुक देशों में काफी समय से जेंडर न्यूट्ल शब्दों को लाने की चर्चा हो रही है।
यूरोप में नारीवाद का परचम लहराने वाले फ्रेंच लेखक और विचारक सीमोन द बुवा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द सेकेंड सेक्स' में लिखा था कि 'स्त्री जन्म से स्त्री नहीं होती, उसे स्त्री बनाया जाता है।' बुवा का तर्क ऐसा था कि स्त्रीत्व बायोलॉजी या साइकोलाॅजी से नहीं आता, सामाजिक चलन और रिवाजों से आता है।
ऑक्सफर्ड रिसर्च इन साइक्लोपीडिया आफ कम्युनिकेशन में काम करने वाली मिशेल मेनेगाति और मोनिका रूबिन के अनुसार 'भाषा समाज में लैंगिक असमानता बढ़ाने का सशक्त माध्यम है। भाषा के कारण ही समाज में लैंगिक असमानता पोषित होती है और फिर बढ़ती जाती है। जिन देशों में भाषा लिंग सूचक नहीं है अथवा कम है, वहां लैंगिक समानता अधिक है।
भारत में अधिकतर भाषाएं स्पष्ट रूप से लिंगसूचक हैं। जैसे कि आई एम गोइंग का हिंदी अनुवाद 'मैं जाती हूं।' अथवा 'मैं जाता हूं।' जबकि भारतीय भाषाओं में ऐसा नहीं है। हिंदी में न्यूट्ल जेंडर नहीं है। जबकि अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं है।

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वीरेन्द्र बहादुर सिंह जेड-436ए सेक्टर-12, नोएडा-201301 (उ0प्र0) मो-8368681336
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