सुपरहिट: विजय भट्ट की नरसिंह मेहता में गांधी दर्शन
पहली गुजराती बोलती फिल्म कौन? लगभग तमाम स्रोतों के अनुसार, गुजरात के प्रख्यात संत भजन लिखने-गाने वाले नरसिंह मेहता की बायोपिक के साथ बोलती गुजराती फिल्मों की शुरुआत हुई थी। नानुभाई वकील (1904-1990) नाम के निर्देशक ने नरसिंह मेहता नाम की फिल्म बनाई थी, जो 9 अप्रैल, 1932 को रिलीज हुई थी। यह फिल्म ब्लैक एंड ह्वाइट थी। (पहली गुजराती रंगीन फिल्म 'लीलुडी धरती' 1968 में आई थी)।मूल रूप से वलसाड के रहने वाले नानुभाई वकील ने लगभग 55 फिल्में बनाई थीं। उनकी पहली फिल्म 'मृगनयनी' (1929) में और अंतिम फिल्म 'ईद का चांद' (1964) में आई थी। मुंबई में कानून की पढ़ाई करने के बाद नानुभाई ने शारदा फिल्म नाम की कंपनी में दृश्य लिखने के काम से फिल्मी कैरियर की शुरुआत की थी। 'नरसिंह मेहता' उन्होंने सागर मूवीटोन के बैनर तले बनाई थी।
फिल्में समाज से प्रेरणा लेती हैं यह बात सच है। 40 और 50 के दशक में हिंदी और अन्य भाषाई फिल्मों में संतों के विषय लोकप्रिय थे। जैसे कि 1935 में हिंदी और मराठी में (महाराष्ट्र के संत एकनाथ पर) 'धर्मात्मा', 1936 में मराठी में 'संत तुकाराम', 1941 में हिंदी-मराठी में 'संत ध्यानेश्वर', 1964 में हिंदी में 'संत ज्ञानेश्वर' आदि।
ऐसा कहा जाता है कि नानुभाई ने गांधीजी के प्रभाव में आकर गुजराती में 'नरसिंह मेहता' बनाई थी। इसीलिए इसमें भजनों पर अधिक जोर दिया गया था, न कि नरसिंह द्वारा किए गए चमत्कारों पर। (इस फिल्म में जाने-माने चित्रकार रविशंकर रावण ने सेट्स बनाए थे)। इसमें मास्टर मनहर नाम के हीरो ने मेहता की, उमाकांत देसाई ने कृष्ण की और खातु ने कुंवरबाई की भूमिका की थी। यह फिल्म चली नहीं।
इसलिए 8 साल बाद 1940 में एक गुजराती निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट ने, अपनी प्रकाश पिक्चर्स फिल्म कंपनी के लिए भजनिक नरसिंह मेहता के जीवन पर फिल्म 'नरसी भगत' बनाने का निश्चय किया। तब उन्होंने भजनों के बजाय चमत्कारों पर ध्यान दिया था। 'नरसी भगत' फिल्म चली। नरसिंह मेहता पर कुल तीन फिल्में बनी हैं। एक तो नानुभाई की, दूसरी विजय भट्ट की 'नरसी भगत' और इनके पहले 1920 में 'नरसिंह मेहता' नाम की एक गूंगी गुजराती फिल्म आई थी। इसलिए इसका विषय 'संत फिल्मों' के लिए उपयुक्त था।
विजय भट्ट यानी जिन्होंने 'राम राज्य' (जिसे गांधीजी ने देखा था), 'बैजू बावरा', 'गूंज उठी शहनाई' और 'हिमालय की गोद' आदि फिल्में बनाई थीं। गुजरात के पलीताणा में रेलवे में गार्ड की नौकरी करने वाले जनेश्वर भट्ट के बेटे वृजलाल भट्ट यानी विजय भट्ट। अपने भाई के साथ वह मुंबई आए और सेंट जेवियर्स कालेज से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई करने के बाद वह बेस्ट बस सर्विस में इलेक्ट्रिशियन के रूप में काम करने लगे। शौकिया गुजराती नाटक भी लिखते थे। इसी से वह पहली बोलती हिंदी फिल्म 'आलम-आरा' के निर्माता-निर्देशक अदरेशर ईरानी आंखों पर चढ़े और इस तरह हिंदी फिल्मों में उनका कैरियर शुरू हुआ।
विजय भट्ट के जीवन और काम को समर्पित वेबसाइट विजय भट्ट डाॅट इन में दी गई जानकारी के अनुसार नरसिंह मेहता पर फिल्म बनाने की सूचना महात्मा गांधी की ओर से आई थी, जिनकी भजन 'वैष्णवजन तो तेने रे कहिए...' गांधीजी को प्रिय थी। वलसाड में विजय भट्ट और उनके मित्र गांधीजी से मिलने गए थे। तब गांधीजी ने पूछा था, 'क्या काम करते हो?' तब भट्ट ने कहा था कि फिल्में बनाता हूं। 'नरसी मेहता पर फिल्म बनाने के बारे में कभी सोचा है?' बापूजी ने अगला सवाल किया था। 'बापूजी बनाने का प्रयास करूंगा।' विजय भट्ट ने जवाब में कहा।
उनकी प्रकाश पिक्चर्स उस समय जमीजमाई फिल्म कंपनी थी और उनकी 'संत तुकाराम' फिल्म अच्छी लोकप्रिय हुई थी। भट्ट ने नरसिंह मेहता पर हिंदी-गुजराती में फिल्म बनाने का निश्चय किया। इसमें मुख्य भूमिका के लिए मराठी रंगभूमि के अभिनेता विष्णुपंत पागनीस (1892-1943) को लिया था। पागनीस संत विदुर, संत तुलसीराम और संत तुकाराम की भूमिका कर के 'संत अभिनेता' के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। नरसिंह मेहता की पत्नी की माणेकबाई की भूमिका में दुर्गा खोटे थीं।
नरसी भगत या भक्त नरसैयो जैसे लोकप्रिय नाम से लोग जिन्हें जानते थे, वह गुजराती भाषा के आदिकवि या भक्तकवि नरसिंह मेहता 5 सौ साल पहले उर्मिकाव्य, आख्यान, प्रभातियां और चरितकाव्य रच कर इतिहास में अमर हो गए थे।
15वीं सदी में भारत के जिस भक्ति आंदोलन के शुरुआत में नरसिंह मेहता ने भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग के रहस्यों को सर्वप्रथम कविताओं और भजनों द्वारा सरल भाषा में आम लोगों तक पहुंचाया था। उच्च नागर जाति में पैदा होने के बावजूद वह लोगों में सभी को हरि के जन हैं यह बात समझाते थे और इसीलिए गांधीजी के सामाजिक विचारों में मेहता का स्थान ऊंचा है। अस्पृश्यों के लिए गांधीजी ने जिस 'हरिजन' शब्द का उत्पादन किया है, उसकी प्रेरणा नरसिंह मेहता ही थे।
फिल्म में भावनगर के पास तणाजा गांव के बेरोजगार और कृष्णप्रेमी नरसिंह मेहता को उनकी पत्नी माणेकबाई, पुत्री कुंवरबाई और पुत्र शामणशा के साथ उनके भाई (बंसीधर) और भाभी (झवेरबाई) के यहां रहते हुए दिखाया गया है। एक रात वह किसी गरीब-दुखिया की मदद के लिए घर से बाहर जाते हैं, तब उनके लिए भाभी हमेशा के लिए दरवाजा बंद कर देती है।
नरसिंह नजदीक के एक शिव मंदिर में आशरा लेते हैं और 7 दिनों तक बिना कुछ खाए-पिए तपस्या करते हैं। उनकी तपस्या से खुश हो कर शिवजी उन्हें (गोलोक) स्वर्ग में कृष्णजी के पास भेजते हैं। वहां गोपियों के साथ नृत्य करने का नरसिंह का सपना पूरा होता है। पृथ्वी पर आ कर वह अस्पृश्यों के बीच कृष्ण का संदेश लोगों को देते हैं। वह कहते हैं, 'भाइयों डरो मत, आप लोग भी मेरे जैसे हैं। मैं आप लोगों के बीच समानता और दया का संदेश ले कर आया हूं।'
वह सिर पर 'वैष्णव' लिख कर गांव में घूमते हैं और लोगों के उपहास का शिकार बनते हैं। वह धर्मशाला में आशरा लेते हैं और कृष्ण पर विश्वास कर के कुंवरबाई के विवाह की तैयारी करते हैं।
लोगों को यह कहानी पसंद आई थी और कुछ जगहों पर तो इसने सिल्वर जुबली (25 सप्ताह) मनाया था। कराची और लाहौर से निकलने वाले ट्रेड पेपर 'द फिल्मोत्सव एनुवल' में एक रिपोर्ट में लिखा गया था, 'फिल्म सोना का खजाना है और हर स्टेशन पर धूम मचा रही है।'
विजय भट्ट ने फिल्म में मानवजाति के कल्याण के गांधीवादी विचार को नरसिंह के संतत्व के साथ जोड़ा था। भगवान की भक्ति मनुष्य की भक्ति से अलग नहीं, यह उसका केन्द्रीय विचार था। विजय भट्ट ने नरसिंह मेहता के अमुक विचारों और दिखावे की गांधीजी जैसा ही पेश किया था। दुर्भाग्य से इस फिल्म की प्रेरणा देने वाले गांधीजी यह फिल्म देख नहीं सके। जबकि विजय भट्ट ने 1943 में अपनी दूसरी फिल्म 'राम राज्य' का विशेष शो जुहू में गांधीजी के लिए आयोजित किया था।
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