सुपरहिट दामिनी : अन्याय के अंधकार पर गिरी बिजली
आजकल मनोज वाजपेई अभिनीत फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' चर्चा में है। चर्चा का एक कारण खुद वाजपेई हैं, जिन्होंने राजस्थान के जोधपुर कोर्ट के एक वकील पी.सी. सोलंकी के रूप में दमदार अभिनय किया है। दूसरा कारण कहानी का कोर्टरूम ड्रामा है। हमारे यहां कुछ समय से रियलिस्टिक फिल्मों में दर्शकों और फिल्म निर्माताओं की रुचि बढ़ी है। इसलिए सत्य घटनाओं पर फिल्में बन रही हैं। स्वाभाविक रूप से इनके विषय खून-बलात्कार के आसपास घूमते हैं। फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' में भी कहानी का विषय आशाराम बापू के खिलाफ यौन शोषण का आरोप और कोर्ट में उन्हें दोषी ठहराना है।खास कर इसमें कोर्टरूम की कानूनी कार्यवाहियों को वास्तविक रूप से पेश करने का प्रयास हुआ है, जो दर्शकों के लिए एक नया अनुभव है। बालीवुड में कोर्टरूम ड्रामा वाली फिल्मों का लंबा इतिहास रहा है। जैसे 1960 में बलदेवराज चोपड़ा ने कानून फिल्म बनाई थी। जिसमें एक ऐसे जज (अशोक कुमार) की कहानी थी, जो अपनी ही कोर्ट के वकील और भावी दामाद (राजेन्द्र कुमार) की नजर में संदिग्ध आरोपी बन जाते हैं।
चोपड़ा के ही छोटे भाई यश चोपड़ा ने 1965 में 'वक्त' नाम की फिल्म
बनाई थी। फिल्म वैसे बचपन में बिखर गए परिवार की थी, पर इसका अंत कोर्ट में हत्या के एक मामले में होता है। कानून अंधा है और उसे किस तरह सफलतापूर्वक रास्ते से भटकाया जा सकता है, ऐसे उत्तेजक विषय के साथ 1983 में दक्षिण के निर्देशक टी रामाराव ने अमिताभ, रजनीकांत और हेमा मालिनी के साथ 'अंधा कानून' फिल्म बनाई थी। इस फिल्म में अमिताभ का अंतिम कोर्टरूम दृश्य यादगार है और कुछ हद तक 'सिर्फ एक बंदा काफी है' में वाजपेई के अंतिम कोर्टरूम दृश्य का प्रेरणा बना था।
इस संदर्भ में 1993 में राजकुमार संतोषी की आई फिल्म 'दामिनी' उनके साहसी विषय और कोर्टरूम ड्रामा को ले कर सीमाचिह्न की तरह है। 'दामिनी' ध्यान देने वाली फिल्म इसलिए भी है, क्योंकि एक ओर इसमें बलात्कार का सामाजिक मुद्दा था और दूसरी ओर इसका कानूनी पहलू था। दुख की बात यह थी कि दोनों मोर्चे पर पीड़िता की मददगार दामिनी गुप्ता (मीनाक्षी शेषाद्री) को सहन करना आता है।
समाज-परिवार और कानून के हाथों परेशान दामिनी की इस विवशता को प्रकट करने के लिए ही राजकुमार संतोषी ने एंटी थीसिस के रूप में एडवोकेट गोविंद श्रीवास्तव (सनी देओल) का पात्र तैयार किया था, जो दामिनी को न्याय तो दिलाता ही है, पर फिल्म पूरी होने के बाद दर्शकों को समाज के दोहरे मापदंड और कानून के रूखे पन के बारे में सोचने को मजबूर करती है। गोविंद का वह आक्रोश भरा संवाद 'तारीख पे तारीख' और 'ये ढ़ाई किलो का हाथ' आज भी उतना ही यादगार है। फिल्मों के दमदार कोर्टरूम ड्रामा की अगर लिस्ट बनाई जाए तो उसमें फिल्म दामिनी के गोविंद की कोर्ट की पेशी सब से ऊपर होगी।
राजकुमार संतोषी ने फिल्म में चार महान मुद्दे उठाए थे।
1- भारतीय अदालतों में बलात्कार के केस बहुत लंबे और असंवेदनशील रूप से चलते हैं।
2- समाज में बलात्कार को ले कर दोहरे मापदंड हैं। इसमें पीड़िता को ही अपराधी माना जाता है।
3- समाज और कोर्ट की व्यवस्था ऐसी है कि सच बोलना मुश्किल हो जाता है।
4- न्याय और सत्ता अमीर और गरीब के बीच अंतर करती है।
फिल्म की नायिका दामिनी सच्चाई और सरलता का प्रतीक है। परिवार की समस्या हो, सार्वजनिक मुद्दे हों या व्यक्तिगत मामले हों, दामिनी निष्कपट जीवन जीने में विश्वास करती है और चाहती है कि उसके आसपास जो लोग हैं, वे भी वैसा जीवन जिएं। उसकी इसी निर्दोषता के कारण ही एक अमीर बिजनेसमैन शेखर गुप्ता (ऋषि कपूर) उसकी ओर आकर्षित होता है और उसके साथ विवाह करता है। विडंबना कैसी कि दामिनी के यही गुण बाद में अनबन की वजह बनते हैं।
फिल्म की कहानी बहुत जानी-समझी है। शेखर का भाई और उसके दोस्त होली की मौजमस्ती में कामवाली उर्मि (प्रजक्ता कुलकर्णी) के साथ बलात्कार करते हैं। दामिनी और उसका पति इस मामले के चश्मदीद गवाह हैं। दामिनी उर्मि की मदद करना चाहती है, पर उसके अमीर ससुराल वाले इज्जत बचाने के लिए उसे रोकते हैं, जिसकी वजह से उसे घर-परिवार छोड़ना पड़ता है।
दामिनी गुप्ता परिवार के लोगों के अपराधबोध के बीच जी नहीं सकती और बेबस हालत में एक शराबी वकील गोविंद की शरण में पहुंच जाती है। गोविंद, जो कानून और वकालत का सिस्टम किस तरह काम करता है, उसे अच्छी तरह जानता है। वह दामिनी का हाथ थामता है और अमीर लोगों के बैरिस्टर इंद्रजीत चड्ढा (अमरीश पुरी) का सामना करने के लिए तैयार हो जाता है। इसके बाद कानूनी खेल शुरू होता है और बलात्कार के केस में जैसा लोग कहते हैं, कोर्ट में उर्मि पर 'दूसरा बलात्कार' शुरू होता है।
दामिनी एक ओर भारत की असंवेदनशील कोर्ट व्यवस्था पर टिप्पणी करती है तो दूसरी ओर महिला सशक्तिकरण का समर्थन करती है। एक सीधी-सादी और भोली दामिनी किस तरह पुरुषप्रधान समाज में अचानक नारी अधिकार की रखवाली करने वाली बन जाती है, यह मजेदार है। इसमें एक दृश्य ध्यान देने वाला है। दामिनी जिस तरह ससुराल वालों के फरमान का उल्लंघन करती है और परिवार की बहू के 'फर्ज' भूल कर एक पराई स्त्री को न्याय दिलाने का झंडा उठाती है, यह देख कर भड़का चड्ढा गुप्ता परिवार को 'आश्वासन' देता है कि 'मैं दामिनी को कभी दूसरी औरतों के लिए मिसाल बनने नहीं दूंगा।' इसलिए वह दामिनी को पागल ठहराने की कोशिश करता है। बात तो ठीक ही है। पुरुष के वर्चस्व वाले समाज में अगर स्त्री खुद को स्वतंत्र बताती है तो वह पागल ही कहलाएगी।
90 के दशक में जब रोमांटिक और ऐक्शन फिल्में चल रही थीं, तब राजकुमार संतोषी ने बलात्कार को ले कर समाज और न्याय तंत्र के निराशाजनक अभिगम पर एक नायिका प्रधान फिल्म बनाने का साहस किया था। 'अर्धसत्य' (1982) वाला गोविंद निहलानी के सहायक के रूप में काम करने वाले संतोषी ने 1990 में सनी देओल और मीनाक्षी शेषाद्री के साथ 'घायल' फिल्म से निर्देशन के क्षेत्र में पदार्पण किया था। 'दामिनी' उनकी दूसरी फिल्म थी। ऐसा कहा जाता है कि संतोषी को ठीक से मौका मिलता नहीं था। सनी ने पहले उन्हें 'घायल' और फिर 'दामिनी' में फाइनेंस की व्यवस्था कराई थी।
एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "घायल फिल्म के बाद मैंने उन्हें सिक्वल बनाने के लिए पैसा दिया होता, पर 'दामिनी' की कहानी मुझे अच्छी लगी थी। मुझे लगा कि यह कहानी ज्यादा प्रासंगिक है। कई लोगों ने मुझे सुझाया कि फिल्म में मीनाक्षी की बहन के साथ बलात्कार दिखाया जाए तो दर्शकों की सहानुभूति अधिक मिलेगी। मैंने कहा कि अपनी मां-बहन के लिए तो सभी लड़ते हैं। मुझे तो दामिनी को नौकरानी के लिए लड़ते दिखाना है और वह नौकरानी के लिए अपने पति, ससुराल और दूसरे तमाम लोगों से लड़ जाती है। मुझे ऐसी नायिका का उदाहरण देना है।"
और मीनाक्षी ने भी दामिनी की इस भूमिका को उसके नाम के अनुसार ही न्याय दिया था। दामिनी का अर्थ होता है 'बिजली', और फिल्म की नायिका बिजली बन कर सभी पर ऐसी गिरी थी कि आज भी उसकी गर्जना सुनाई देती है।
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