तलाक को लेकर हाय-तौबा क्यों
सोशल मीडिया पर इनदिनों एक तसवीर तेजी से घूम रही। तसवीर एक महिला की है। वो तलाक की खुशियां मनाती दिख रहीं है। शादी के फोटो को कुचल रही है,फाड़ रही है। फोटो बता रहा कि शादी से जो खुशी वह हासिल नहीं कर पायी या मिल नहीं पायी वो खुशी तलाक में मिल रही। लेकिन एक महिला की यह खुशी बहुत सारे लोगों को सुहा नहीं रही। तरह- तरह के कमेंट्स आ रहे, लांछन लगाए जा रहे। इसबात की पड़ताल करने की जहमत उठाता कोई दिख नहीं रहा कि आखिर वह महिला तलाक के दर तक पहुंची कैसे और क्यों? फिर इस दर पर पहुँचकर वो खुशी क्यों मना रही?सामाजिक हकीकत तो यह है कि औरतों का अपना कोई घर नहीं होता। ना तो मायके को और ना ही ससुराल को वह अधिकार के साथ अपना घर मान सकती है। मायके में जबतक वो रहती है ,माता-पिता जल्दी से शादी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने की चिंता में रहते हैं। फिर ब्याह कर ससुराल पहुंचती है तो बार-बार उसे एहसास कराया जाता है कि यह तुम्हारा घर नहीं जो तुम हुक्म चलाओगी। आश्चर्य है वही लोग घर के मेड से सलीके से बात करेंगे। समय से हप्ते पहले पगार देने को राज़ी रहेंगे।ताकि इनका इमेज बरकरार रहे। लेकिन पत्नी से तू-तराक में बात करेंगे। ज़रूरत के खर्च को भी फिजूल मानते रहेंगे। इतना ही नहीं सजने-पहनने, यहां तक की खाने पर भी सवाल उठाएंगे। इनसब को स्वच्छंदता का नाम देकर ताना मारेंगे। लांछन लगाएंगे कि यह कामचोर है। घर के काम से निजात चाहती है। ऐसी स्थितियों में वह औरत भले ही आस -पड़ोस,दफ्तर या किसी और जगह कोई कंधा ढूँढ़े रोने के लिए, किसी से औपचारिक रिश्ता भी बनाने की कोशिश करें तो इनके कान सीधे खड़े हो जाते हैं। तब आरोप मढ देते हैं कि इसे आज़ादी चाहिए ताकि यह लव इन रिलेशन में रह पाए।
इतना कुछ झेलने के बावजूद अधिकांश महिलाएं मुंह खोलने से डरती हैं। कुछ बोल ही नहीं पाती। संस्कारों से उनकी पीठ लदी हुई रहती है। अगर कुछ कदम उठाने का मन हुआ तो भी कुछ भी करने के पहले बहुत सोचती हैं । कोर्ट का दरवाजा खटखटाना आखिरी विकल्प होता है। लेकिन कुछ गिनी- चुनी महिलाएं जब कोर्ट का दरवाजा खटखटाती हैं,तो अच्छे- अच्छे का पसीना निकल आता हैं। जब कटघरे में खड़े होकर अपना हक माँगती हैं तो वे औंधे मुँह गिरने को आ जाते हैं।
जबकि जब तक मुंह सीले सुनती- सहती रहती हैं उसे देवी का दर्जा देते रहतें हैं! उसे अबला बेचारी कह संबोधित कर पुरुष अपना पुरुषत्व का वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं। सब न्यूटन का तीसरे नियम में ही जीना चाहते हैं। जो जिस गति में हैं वो उसी गति में रहना चाहते हैं। अब ऐसी स्थिति में कोई आपका नियम तोड़ कर चले जाए तो आपके ऊपर बिजली तो गिरेगी ही! सोचने वाली बात है अगर महिला को घर में सम्मान, प्यार मिले तो यह भला कोर्ट का दरवाजा क्यों खटखटायेगी। तलाक का विकल्प क्यों चुनेगी।
जब कोई औरत तलाक का विकल्प चुनती है तब पुरुषों की बर्चस्ववादी मानसिकता इसे बर्दाश्त नहीं कर पाती। उसे लगता है यह तो मेरा हक था की जब चाहूँ पत्नी को रखूँ या निकाल दूं। पर अब तो यह हमारे मुंह पर तमाचे मारकर निकल जायेगी। भला यह कैसे हो सकता ? और तब वे तरह- तरह के हथकंडे अपनाने को आतुर हो जाते हैं। और सबसे बेहतर हथकंडा होता हैं महिलाओं का चरित्रहरण। ये वही लोग होते हैं जो वैसे पुरुषों को जिगर वाले मर्द का पदक पहना देते हैं जो बिना पत्नी को तलाक दिये चोरी छुपी शादी भी कर ज़िंदगी निर्वाह करते आ रहे हैं। उनके ऊपर यही तथाकथित लोग प्रश्न उठाना भूल जाते हैं।
दरअसल पुरुष ने धर्मग्रंथ लिखा हैं। पुरुष ने स्त्रियों के लिए नियम मर्यादा बनाया हैं। पुरुष ने बचपन से लेकर बुढ़ापा तक बंधन में बाँधना सिखाया हैं। मर्यादा का पाजेब पहना कर सरेआम महिलाओं की ज़िंदगी नीलाम किया है। इन सब में बदलाव तो करना पड़ेगा। वर्चस्ववादी मानसिकता के लोग भला इसे कैसे सहन करेंगे। उन्हें तो राग अलापने की आदत पड़ी हैं।
महिलायें अगर आसमान छूना चाहती हैं तो पहले पुरुष के पीठ को पायदान बनाना सीखें। याद रखना होगा दम तोड़ने वाले तो कायर कहलाते हैं। तो फिर तलाक का जश्न मनाकर जीवट कहलाने में क्या हर्ज हैं।
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