कितनी विभिन्नता में एकता
दक्षिण भारत में समंदर किनारों का सौंदर्य बिखरा पड़ा है।कुदरत ने चारों हाथों से सौंदर्य बिखरा हैं।वहां की जमीन में फलद्रुप है।जहां की भाषाओं में संस्कृत की झलक दिखती हैं।वहीं पर हिंदी जो राष्ट्र भाषा है उसी का उपयोग अस्वीकृत हैं तब एकता कहां का दर्शन हो रहा हैं।
वैसे भी राजकारियों ने देश को कई हिस्सों में बांट रखा है और उसका अपने राजकीय रोटियों को सेकने के लिए उपयुक्त बना उपयोग करते हैं।
उससे तो पुराना हिंदुस्तान अच्छा था जहां हर जाति और प्रांत के लोग अपनी अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करके जीते थे।सब को अपने अपने स्थान का पता था वही अपनी मर्यादाओं में जीते थे।दूसरों को जीने देते थे।आज देश की वर्ण व्यवस्था जो एक सामाजिक सौहार्द था उसे जातिवाद में तब्दील कर हर जातिबका नेता वर्ग अपना फायदा उठ रहा है और उनकी मदद से राजनेताओं अपनी कुर्सियों की जमीन पुख्ता कर रहें है। न ही उनको विविधता में कोई रस है न ही एकता में उन्हें तो रस है अपनी राजकीय उन्नति में।पहले राजघरानों में राजकरण होता था आज घर घर में राजकरण प्रवेश कर चुका है जो देश हित में बहुत घातक है।
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