कविता – 'रूह' | kavita rooh

कविता – 'रूह'

कविता – 'रूह' | kavita rooh
मैं अजर हूँ मैं अमर,
जीवन मृत्यु से हूँ परे।
रहती हूँ प्राणी के तन में मैं,
दिए में लौ की तरह
काया की मैं वो साथी हूँ,
जो देती उसको जीवन है।
जीता अनेकों जज़्बातों को प्राणी,
जब तक संग रहती हूँ मैं।
पर मैं वो पंछी हूँ,
जो सदा न रहता पिंजरे मैं।
जब खुलता पिंजरा देह का,
कहीं दूर उड़ जाती हूँ मैं
हां मैं रूह हूँ तेरी बन्दे,
जिसकी वजह से तू ज़िंदा है।
पर ना मोह में रहना मेरे,
तन को बदलती रहती हूँ मैं।

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नंदिनी लहेजा | Nandini laheja
नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

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