कन्यादान नहीं, कन्या-सम्मान।

कन्यादान नहीं, कन्या-सम्मान।

यह कैसा शब्द है कन्यादान,
कौन करता है अपनी जिंदगी को दान,
माता- पिता की जान से बढ़कर,
कैसे खुश हो सकते है वह,
अपनी बेटी किसी को दान कर।

बेटी कोई वस्तु या धन नहीं,
उसे दान में देना, क्या है सही?
कहो उसे आज से दो घर है तुम्हारे,
मेरी लाडली बेटी के लिए,
खुले हैं दोनों घर के द्वार सारे।

तुम नहीं अपने ही घर की मेहमान,
तुम तो हो इस घर की शान,
जब मन चाहे आते रहना,
तुम हो मेरी बिटिया रानी,
कभी खुद को पराया ना कहना।

खुशनसीब है हमने तुमको पाया,
इस घर को तुमने महकाया,
जीवन में और रिश्ते बढ़ गए हैं,
ना सोचना तुमने किसी को खोया,
पुराने रिश्तो के साथ जुड़े नए हैं।

हम सब हैं तुम्हारे अपने,
पूरे करना तुम सारे सपने,
दोनों एक दूसरे का सहयोग बनकर,
जिम्मेदारी, प्रेम और सम्मान के साथ
जरूर बनना एक बेहतरीन हमसफर।।

About author 

डॉ. माध्वी बोरसे।
(स्वरचित व मौलिक रचना)
राजस्थान (रावतभाटा)

Comments