कविता - छाँव सा है पिता

 कविता - छाँव सा है पिता

सिद्धार्थ गोरखपुरी
सिद्धार्थ गोरखपुरी

गलतफहमी है के अलाव सा है पिता

घना वृक्ष है पीपल की छाँव सा है पिता


लहजा थोड़ा अलग होता है माना

पर प्रेम अंतस में लबालब भरा है

अपने परिवार के खातिर है मीलों दूर

वो बुरे हालातों से कब डरा है

बच्चे मझधार में हों तो नाँव सा है पिता

घना वृक्ष है पीपल की छाँव सा है पिता


माँ की ममता और पिता का साया

ये दो बल हैं जो सम्बल देते हैं

दुआएं,आशीर्वाद,डांट -फटकार

ऐसे आशीष हैं के किस्मत बदल देते हैं

हर दौर में हाथ थामने वाला गाँव सा है पिता

घना वृक्ष है पीपल की छाँव सा है पिता


हैसियत से ऊँचा उठता है बच्चों के लिए

जंग वक़्त से रह -रह कर लड़ता है

मुसीबतों का पहाड़ भी ग़र टूट पड़े

पिता है मुसीबतों से कहाँ डरता है

मुसीबतें नदी हैं तो समंदर के ठहराव सा है पिता

घना वृक्ष है पीपल की छाँव सा है पिता

-सिद्धार्थ गोरखपुरी

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