अकेली होती कहां

 अकेली होती कहां

डॉ. इन्दु कुमारी
डॉ. इन्दु कुमारी

मेरे तो सब साथी

 मैं अकेली होती कहां

 हवा से भी बातें करती

 पेड़ पौधे है साथी

 प्रेम के दीप जले हृदय में 

जैसे जलत रहे बाती

 ना द्वेष मन में पलता

ना राग किसी से भी है 

निस्वार्थ हवा सी 

अविरल बहा करती हूं।

वैर पालते हैं जो कोई 

चैन उन्हें मिलता नहीं 

निकम्मों को पैर खींचने 

का मौका तो चाहिए

 हम नदी की धारा है

 मंजिल की ओर बहा करते

 कम से कम मलाल नहीं 

किसी के पैर को 

खींचा तो नहीं करते 

लोगों के दुखों से

 द्रवित होता मन

यह एहसास तो 

अभी नहीं मरे हैं 

जमीर जिंदा है दिल में 

दीन दुखियों की 

पीड़ा सुनाई देती 

दुखती रग तो

 नहीं दबाया हमने 

प्यार के सांकल

 पर जंजीर तो 

नहीं लगाया हमने।

जियो और जीने दो 

की भावना तो है मन में।

    डॉ. इन्दु कुमारी 

मधेपुरा बिहार

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