आजकल संतति से विमुख हो रहे हैं युवा
जब हम लोग छोटे थे तो सभी घरों में एक ही रिवाज होता था,पढ़ो लिखो अपने पैरों पर खड़े होते ही शादी करों और शादी के बाद कुछ साल बाद बच्चा पैदा करके परिवार के प्रति अपने फर्ज को निभाओ,जिस परिवार ने तुम्हे जन्म दिया उस परिवार को फलता–फूलता रखना एक कौटुंबिक फर्ज था।अब तो कुटुंब ही नहीं रहे तो कौटुंबिक फर्ज कहां से निभेगा?अब विभक्त परिवार में माता पिता और एक ही बच्चा चाहे बेटा हो या बेटी ही होते हैं।अगर माता–पिता दोनों ही कामकाजी हैं तो कामवालों के अलावा एक आया भी उस घर में प्रविष्ट हो जायेगी।जो बच्चें पहले दादा,दादी,बुआ,चाचा,चाची के हाथों पलते थे वे अब कामवालों और आया के हाथ पलने शुरू हो गएं हैं।पहले बच्चें संस्कारी इन्ही की वजह से होते थे।अब देखें तो आया या कामवालें कौनसे मोहल्ले से आते हैं,उनकी भाषा या व्यवहार क्या अपने घर के मापदंड या रिवाज के हिसाब से होंगे क्या? नहीं हर राज्य,शहर,गली मोहल्ले सब के अपने अपने रिवाज और मापदंड होते हैं,भाषा में उपयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं होता वे भी उन्ही के स्टैंडर्ड के होते हैं।जैसे ऐसे ही एक परिवार के बच्चे का बात बात में ’साला’ बोलना उनके घर में कामकरने वाले लोगों की वजह से ही था।एक संभ्रांत परिवार में ऐसे शब्द बाहर वालों से ही आते हैं।
पहले एक या दो बच्चों की बात करने वाले अब सिर्फ एक ही बछे की चाह रखने लगे हैं।और कुछ बच्चे तो बच्चा चाहते ही नहीं।उनकी प्राथमिकता ही बदल गई हैं। पढों लीखों नौकरी करो ,खूब धन कमाओं और ऐश करो।बच्चे की परिभाषा वाला समाज ही नहीं रहेगा अगर यहीं मानसिकता रही तो।ऐसे ही एक युगल से मैंने पूछा कि क्यों नहीं चाहिए उन्हे बच्चा तो बोले कि कौन पालेगा उसे, मुसीबत ही तो होता हैं बच्चा पालना। मैंने बहुत ही सादगी से पूछा क्या उनकी मां ने उन्हे पाला तो क्या वे भी मुसीबत थे,तो बोली वह अपनी मां की तरह नहीं हैं जो सब कुछ चला लें। मां जिससे उनका अस्तित्व हैं उसी को या उसकी प्रतिभा को नकारना कब तक सही माना जाएं?वैसे भी हर मां और पिता का अपने पोते,पोतियों और दोहते दोहतियों को खिलाने की चाह बहुत प्रबल होती हैं ,उन्हे हताश कर क्या पाएंगे ये लोग!अब जिस मां ने सो दुखों को सहते सहते बच्चों को पढ़ाया और आगे बढ़ाया हो उनके बच्चों को बच्चे नहीं चाहिए।क्योंकि उनका ध्येय अपना कैरियर हैं,कमाई करना हैं। चालों मर्द तो अपना ध्येय कमाई और व्योपार धंधा बना ले तो चले लेकिन औरतें जिन्हे भगवान ने कोख जैसा वरदान दिया हैं उसका मान रख संतति की इच्छा रखना एक स्त्रीलक्षी गुण हैं, उसे नकार ने से वे कुदरत के दिए गए वरदान की अवमानना कर रहें हैं ।अगर स्त्रीदाक्षिण्य की बात करें तो ममता भरी
गोद और मातृत्व सौ प्रथम आता हैं बाद में दूसरे हजार गुण भरे हैं स्त्री में उनकी गिनती होती हैं।
अब जब स्त्री को पुरुष के
समकक्ष बनना हैं तो क्या यही तरीका हैं कि संततिहीन बने रहो,अपनी ही पीढ़ी को,वंश को तुम आगे नहीं बढ़ाओ ये एक प्रकार से कौटुंबिक और सामाजिक गुनाह हैं।जिस समाज से जो कुछ पाते हो उसको कुछ देना तो बनता ही हैं।
बस एक ही इलाज हैं ये रीती जो आज के युवा बना रहें उसे रोकने की,उन्हे समझाया जाएं कि समाज और कुटुंब को ओर भी कुछ कर्तव्य उनका भी बनता हैं।
कुटुंब एक छोटे दायरे वाला समाज ही हैं जहां बच्चा समाज में रहने के नियम और संस्कार दोनों प्राप्त करता हैं।विवेकी बनते हैं,सम्मान से बात करना सिखता हैं।अगर युवा लोग बच्चे से चीड़ या नफरत रखेंगे तो समाज का अंत ही हो जायेगा।
जयश्री बिरमी
अहमदाबाद
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