कहानी -सुरेश बाबू (hindi kahani)

 कहानी -सुरेश बाबू (hindi kahani)  

कहानी -सुरेश बाबू
बड़े- बूढों ने जो कहा है l वो ठीक ही तो कहा है l कि बडे़- बुजुर्गों का हमेशा आशीर्वाद ही लेना चाहिए l कभी उनकी बद्दुआएंँ नहीं लेनी चाहिए ! जो भी बातें बड़ों ने कहीं हैं l वो ठीक ही तो कहीं हैंं l ये कहानी आज से पंँद्रह- बीस एक साल पुरानी है l जब सुरेश बाबू जिंदा थें l बड़े ही हंँसमुख स्वभाव के थे , सुरेश बाबू l आज ये कहानी लिखते समय वो मेरे सामने जीवंत हो गए हैं l लगता है जैसे कि अब ही मुझसे बोल पडेंगे l लेकिन ऐसा सिर्फ लगता है l
उनको गुजरे हुए लगभग छ:- सात साल तो हो ही गए
होंगे l
खैर, मैं आशीर्वाद की बात कर रहा था l कह रहा था कि
आदमी को अपने बडे़- बूढों का आशीर्वाद ही लेना
चाहिए l कभी उनकी बद्दुआएंँ नहीं लेनी चाहिए l

लेकिन , अशोक बाबू और उनकी पत्नी सुरभि ने शायद
यही गलती कर दी थी l जैसा कि लोगों की राय है l
कहा जाता है कि जहाँ धुँआ होता है l वहांँ आग भी होता
है l और सचमुच जब धुँआ उठने लगा l तो उससे सुरेश बाबू की आंँखें भी जलने लगी थी l और उनकी आंँखों से पानी भी निकलने लगा था l
यानि, जो उड़ती-उड़ती बात मुझे और लोगों को पता चली थी l वो ये थी कि कि सुरेश बाबू को उनका लड़का
अशोक बडा़ परेशान कर रहा है l परेशान कर रहा है का
मतलब कि,वो उनको उनके ही दूकान से निकाल रहा है !

हालाँकि ये बात सुनने में अजीब जरूर थी l लेकिन ये बिलकुल सच था l कि अशोक बाबू ने अपने पिताजी यानि सुरेश बाबू को उनके ही दूकान से बेदखल कर दिया था l यानि अब सुरेश बाबू उस दूकान के असली मालिक नहीं हैं l और अब उस दूकान पर अशोक बाबू यानि सुरेश बाबू के लड़के का हक है l

उस समय कामता बाबू जिंदा थें l कामता बाबू, माने
कामता सिंह l कामता बाबू यानि हम दूकानदारों के
दूकान मालिक l
सुरेश बाबू ओर अशोक बाबू के कहने पर , वो मीटिंग
रखी गई थी l कामता बाबू ने एक- एक कर दोनों को अपने आॅफिस में बुलाया था l दोनों लोगों का पक्ष सुनने के लिए l
पहले उन्होंने सुरेश बाबू को बुलाया था l क्योंकि वो दूकान के मालिक थे l और बाद में अशोक बाबू को जो सुरेश बाबू के सबसे छोटे लड़के थे l
कामता बाबू ने जब सुरेश बाबू से पूछा था, कि आज चालीस सालों के बाद , तुम दोनों बाप- बेटे के बीच ऐसा क्या हो गया है कि तुम लोगों की बातें घर के बाहर तक
सुनाई पड़ने लगी है l आखिर घर की बातें तुम लोगों को
घर में ही सुलझा लेनी चाहिए थी l

... तब अचानक से सुरेश बाबू भर-भराकर रो ही तो, पड़े थे! जैसे उनके अंदर से कोई नदी बह निकली थी l कोई सामान्य नदी नहीं l बल्कि भयंकर बरसाती नदी, जो विशाल जनसमुदाय को बहाकर खत्म कर देना चाहती थी l
उनके जज्बात और उनकी जुबान साथ नहीं दे रहे थे!
उन्हें खुद भी दु:ख था कि इस बात को उन्हें आज सार्वजनिक करना पड़ रहा है l जिसको वो सबसे
छुपाकर रखना चाह रहे थें l उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं कि थी , कि वक्त उन्हें ये दिन भी दिखाने वाला है !

जिस लड़के को उन्होंने इतनी मेहनत से पाला- पोसा l आज वो लड़का अपनी बीवी की बातों में आ गया है l
आज अशोक मेरी किसी बात को नहीं मान रहा है l उन्हें
याद है, जब अशोक दो वर्ष का था l होली की एक रात
पहले यानी अगजा वाले दिन, अचानक अशोक को निमोनिया हो गया था l उसका पूरा बदन बुखार से तप रहा था l सुरेश बाबू, अशोक को दो - बजे रात में.डाॅ.गुप्ता
के यहाँ ले गये थें l गुप्ता जी ने दवा और इंजेक्शन दिया था l तब रात भर जागकर सुरेश बाबू ने अशोक की सेवा - सुश्रूषा की थी l पति- पत्नी दोनों अशोक की सेवा में रात
भर जागते रहे थें l प्रभावती सारी रात जागकर अशोक की पट्टियाँ बदलतीं रहीं थीं l और सुरेश बाबू रात भर
अशोक के सिरहाने बैठे रहे थे l उस साल उनके घर में होली नहीं मनाई गई थी l

वो होली थी l और एक दिन जब राम नवमी की एक सुबह सुरेश बाबू ने अपनी बहू सुरभि को बैंगन लाकर दिया l और जब बैंगन के थैले को बडे प्यार से उन्होंने सुरभि को पकड़ाया था l और ये कहा था - " बहू, आज बहुत दिन हो गए बैंगन का भर्ता खाए l लो आज बडे़ ही ताजा बैंगन बाजार में मिले हैं l इनका भुर्ता बना दो l आज चावल के साथ बैंगन का भुर्ता ही खाउंँगा l "

तब बडे़ उपेक्षा के भाव से सुरभि ने बैंगन के थैले को
घुमाकर बाहर फेंक दिया था l और सुरेश बाबू पर लगभग चीखते हुए बोली थी -" काम- धाम कुछ करते नहीं, और जीभ हो गई है दो हाथ लंबी l बुढापे में आदमी को तेल - मसाले वाली चीजों से दूर ही रहना चाहिए! लेकिन इनकी आदत बिगाड़ गई है l बुढापे में भी दो गज की जीभ हो गई है l सादी चीजें अच्छी नहीं लगती इनको l जब देखो चटर-मटर खाने की आदत पडी हुई है l यहाँ दिनभर आदमी को सैकड़ों काम रहते हैं l इनको तो कुछ समझ में ही नहीं आता l "

उस दिन के बाद सुरेश बाबू को जो भी रूखा - सूखा मिलता खा लेते l कभी किसी खास चीज की मांँग नहीं की थी l लेकिन, जब प्रभावती के कैंसर होने का सुरेश बाबू को पता चला था l तो वो सन्न से रह गए थे l

डाॅ.दास, सुरेश बाबू को समझाते हुए बोले थे - " देखिये सुरेश बाबू आप मेरे करीबी आदमी हैं l आपकी
पत्नी की बीमारी अभी प्रारंभिक अवस्था में है l अगर, कुछ खर्चा करेंगें ,तो हो सकता है प्रभावती कुछ दिन और बच जाएँ l "

तब, शायद सुरेश बाबू के अंतस में कुछ पिघला था l नहीं, वो पानी तो नहीं ही था l

सुरेश बाबू को अच्छी तरह याद है l जब 1965 में वो कामता मार्केट में दुकान लेने पहुंँचे थें l तब दो शटर वाला
दूकान उस समय उनको बहुत बड़ा लगा था l पहले वो बगोदर में थें l वहीं उनका गल्ले का एक दूकान था l उस दूकान को भी उन्होंने ही अपने परिश्रम से खड़ा किया था l

सुरेश बाबू के चार लड़के थे l जयेश, रवि, जयशंकर और
अशोक l दामिनी और संध्या की शादी उन्होंने कलकत्ता और बेगूसराय में कर दी थी l दोनों के बच्चे जवान हो गए
थे l इधर सुरेश बाबू के तीनों लड़के अलग -अलग बिजनेस करने लगे थे l बगोदर वाले दूकान में उन्होंने अपने बेशकीमती चांँदी से चमकते समय और यौवन को खर्च किया था ! पूरे तीस साल तक वो अपने दूकान में रात - दिन गदहे की तरह खटते रहे थे l प्रभावती भी पूरे लगन के साथ परछाईं की तरह सुरेश बाबू का साथ देती आयी थी l गृहस्थी को जोड़ने में l

लेकिन, जब परिवार बडा़ होने लगा l और घर में बर्तन
ज्यादा लड़ने- भिड़ने लगे l तो आखिरकार सुरेश बाबू को
विवश होकर वो घर छोडना पड़ा था l साथ में वो प्रभावती को भी अपने साथ ले आए थे l तब अशोक मुश्किल से पांँच साल का रहा होगा l बगोदर वाले दूकान में लड़कों की रोज की किचकिच और बहुओं की शिकायतों ने जब प्रभावती और सुरेश बाबू का घर में जीना दूभर कर दिया l तो वो, बगोदर से बोकारो चले आए थे l

कामता बाबू को महज़ पांँच सौ रूपये पगड़ी देकर उन्होंने
वो, दो शटर वाला दूकान किराये पर ले लिया था l उस समय किराया भी कितना था l मात्र सतर रूपया महीना ! तब आजकल की तरह चार -लाख, पांँच लाख रुपये पगड़ी ( एडवांस) नहीं हुआ करता था l और, यहीं आकर उन्होंने अशोक का नाम हॉली -क्राॅस स्कूल में लिखवाया था l अशोक पढ़ने - लिखने में उतना होशियार नहीं था l
मोटे दिमाग का लड़का था अशोक l फिर, बोकारो में भी
सुरेश बाबू ने बहुत मेहनत करके कामता बाबू वाले मार्केट में दूकान खडी कर दी थी l दुकान का नाम अपने छोटे बेटे अशोक के नाम से ही रखा था , अशोक भंडार l

अशोक भंडार उस समय के कोयलांचल का मशहूर गल्ला दूकान था l सुबह सात बजे से ही जब से दूकान खुलती l तब से रात ग्यारह बजे तक ग्राहकों की लाइन लगी रहती थी l इतवार के दिन तो दोनों बाप- बेटे को खाना खाने की फुर्सत तक नहीं मिलती थी l उस समय यानी सन् 1965 में बोकारो में उड़िया- बिलसपुरिया बहुत थे l पैसा कोयलांचल में मानों फेंका हुआ था l पहले मजदूरों का पेमेंट सप्ताह में होता था l फिर मजदूरों का पेमेंट पंँद्रह दिनों में होने लगा l फिर मजदूरों का पेमेंट महीने में होने लगा l उस दौर की बातें याद करते हुए थकते नही है, सुरेश बाबू l

खैर, क्या पिघला था सुरेश बाबू के अंदर ? पिघला नहीं था l बल्कि, वो टूट चुके थे l अंदर से वो प्रभावती की बीमारी से बेहद दु:खी थे l उन्होंने जो कमाया, वो घर -गृहस्थी और बाल- बच्चों में खर्च कर दिया l आज उनके हाथ में कुछ भी नहीं था ! उनका हाथ बिलकुल खाली था l

इधर सुरभि भी अपने पति के कान को भरती रहती थी l
उसका कहना था कि बाबूजी और माँ को कहीं और रहने के लिए बोलो l सुरभि के बार - बार के तकाजे के कारण
आखिरकार एक दिन अशोक बाबू ने अपने पिताजी सुरेश बाबू से कह ही तो दिया था - " पिताजी, अब हमारे बच्चे भी बडे़ हो रहे हैं, आप और माँ अपने लिए कोई दूसरा घर देख लीजिए l "

शायद, ये चोट सुरेश बाबू के रहे - सहे हौसले को भी पस्त
कर गयी थी l और वे भारी मन से एक किराये के मकान
में चले गए थें l अब प्रभावती और सुरेश बाबू अकेले ही
उस घर में रहते l घर बिलकुल वीरान लगता l बेटे के साथ
रहते थे तो पप्पु ( पोता) और सोनी ( पोती) से हंँसते - बोलते रहते थें l समय किसी तरह कट जाता था l लेकिन ये नया वाला मकान तो प्रभावती और सुरेश बाबू को काटने के लिए दौडता था!

" क्या सोच रहें हैं , सुरेश बाबू ? " यह सुनकर सुरेश बाबू की तंँद्रा टूटी l

" हुँ.....हांँ......क्या ? कुछ नहीं....कुछ भी तो नहीं.. l " वे झेंपते हुए बोले थे!

तब बडे़ भारी मन से उन्होंने डाॅ. दास बाबू से विदा ली थी l जाते हुए सुरेश बाबू , दास बाबू से बोले थे - " एक- दो दिन में पैसों का इंतजाम करता हूँ , दास बाबू l "

मकान अलग हो चुका था l लेकिन, दूकान में वो जाते थें l
जाकर बैठते थें l हिसाब - किताब भी देख लेते थें l लेकिन, इधर कुछ दिनों से उनका मन किसी काम में नहीं लगता था l बहुत हिम्मत जुटाकर वो अपने बेटे अशोक से बोल पाए थें - " तुम्हारी माँ के इलाज के लिए कुछ रुपयों की जरूरत है l अगर, तुम्हारे पास कुछ पैसे हों तो मेरी मदद करो l "

तब, अशोक बाबू अपने पिताजी पर लगभग गुस्साते
हुए बोले थे - " पैसा तो है l लेकिन घर में एक लड़की भी तो है l मुझे उसकी शादी भी तो करनी है l "

सुरेश बाबू इस घटना के बाद महीनों गुमसुम से रहे थे l
और, आखिरकार, उन्होंने प्रभावती को बचाने का एक
ठोस निर्णय कर लिया था l और वे अपने दूर के एक संबंधी मोहन बाबू से बोले थे - " सोच रहा हूँ, कि मैं अपना मकान बेच ही दूंँ l अगर कोई ग्राहक मिले तो मुझे बताना l "

लेकिन, पता नहीं ये बात कैसे अशोक बाबू को पता चल गयी थी l कि सुरेश बाबू अपना मकान बेचना चाहते हैं l
अभी सुरेश बाबू दूकान में घुसे ही थे कि अशोक बाबू
ने तपाक से पूछ ही तो लिया था -" सुन रहा हूँ कि आप मकान बेच रहें हैं ? "

सुरेश बाबू को आश्चर्य हुआ कि आखिर ये बात अशोक को कैसे पता चली l

उन्होंने अशोक से प्रश्न के बदले प्रति प्रश्न किया -" तुमसे किसने कहा ? "

अशोक बाबू भी बात को घुमाकर बोले - " उन्होंने ही जिससे आपने कह रखा था l "

"क्या मोहन बाबू यहाँ आये थे ? " आश्चर्य से सुरेश बाबू बोले l.
" हाँ, अभी- अभी आधे घंटे पहले आये थें l आपकी बहुत
देर तक राह देखी l फिर चले गये l " अशोक बाबू अनमने भाव से बोले l

फिर, एक दिन सुरभि सास से आकर बोली - " माँ, जी अगर मकान आप लोग बेच दीजियेगा l तो हम लोग आखिर कहांँ जाएँगे ? "

और आखिरकार, अशोक बाबू ने एक दिन अपने पिता सुरेश बाबू से पूछ ही तो लिया था -" पिताजी, आपने मकान का दाम कितना रखा है ? "

हालाँकि, इस बात का उत्तर देना सुरेश बाबू के लिए आसान काम नहीं था l लेकिन प्रभावती के कारण, वो
विवश थे l उन्हें अपने ही हाथों पाले हुए लड़के को
मकान का दाम बताते हुए संकोच हो रहा था ! फिर, भी वो किसी तरह संकोच को त्यागकर बहुत मुश्किल से बोल
पाए थे - " बेटा, मकान बनवाने में तो दस - बारह लाख रूपये लग ही गए थे l तुम्हें तो पता ही है l मकान बनवाते समय तो तुम भी तो यहीं थे l "


तब, अशोक बाबू भी सुरभि की कही हुई बात को सुरेश बाबू के सामने बोल ही तो गए थे - " बाबूजी, मैनें कुछ रूपये सोनी की शादी के लिए जमा करके रखें हैं l कोई आठ- दस लाख रुपये तो होंगे ही मेरे पास l आप उनको
ले जाइये और माँ का इलाज करवाइये l "

तब, अशोक बाबू की ऐसी पेशकश सुनकर सुरेश बाबू की
आंँखें छलक पड़ीं थी ! सोचा, चलो देर से ही सही, अशोक को सद्बुद्धि तो आयी l

लेकिन, सुरेश बाबू को इस प्रस्ताव के पीछे का स्वार्थ, शायद नहीं पता था l पैसा अशोक बाबू के एकाउंँट में था l और एक दिन सुरभि और अशोक बाबू अपने पिता
सुरेश बाबू और प्रभावती से बोले - " बाबूजी, ये लीजिए दस लाख रुपये का चेक l और आप माँ को इलाज के लिए ले जाइए l दिल्ली या वेल्लूर l जहाँ भी आपको ठीक लगे l "

तब, चेक सुरेश बाबू को थमाते हुए सुरभि के तेवर अचानक से बदल गए थे - " बाबूजी, मैं ये कह रही थी कि
आपको हमने जब रूपये दे दिए हैं l तो परसों पूर्णिमा है l लगे हाथ आप मकान की रजिस्ट्री भी हमारे नाम से कर ही दीजिये l "

" क्यों मांँ जी मैं ठीक कह रही हूंँ ना.? " ऐसा पूछकर सुरभि शायद प्रभावती जी का दिल टटोलना चाहती थी l
खैर, किसी तरह रजिस्ट्री का दिन भी आ ही गया l और
सुरेश बाबू ने अपना मकान अशोक बाबू और सुरभि के नाम कर दिया l
इधर, जब पैसे एकाउंँट में आ गये l तो सुरेश बाबू प्रभावती को इलाज के लिए वेल्लूर लेकर चले गये l दो - तीन साल तक इलाज चला l दवा - दारू भी हुई l लेकिन प्रभावती जी नहीं बचीं l वो, सुरेश बाबू को छोड़कर चली गयी थी !

इधर, एक दिन जब सुरेश बाबू दूकान पहुंँचे l तो अशोक
बाबू ने सुरेश बाबू को साफ़- साफ दूकान में घुसने से मना
कर दिया था l

अशोक बाबू गरज कर बोल रहे थेl और सुरेश बाबू अशोक बाबू की बातें चुपचाप खड़े होकर सुन रहे थे l
अशोक बाबू की आवाज अप्रत्याशित होकर ऊँची हो गई थी - " आजकल आपके चाय - नाश्ते, और गुटखा- पान
के खर्चे कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं l अब , दूकान पहले जैसी नहीं चलती है l मैं आपके और खर्चे बर्दाश्त नहीं कर सकता l इतना कुछ हमने आपके लिए किया है l लेकिन , आप यहांँ- वहांँ हम लोगों की चुगली - शिकायत करते रहते हैं l बेहतर होगा, आप यहाँ से कहीं चले जाएंँ l मैं और आपको अपने घर में नहीं रख सकता l अब रोज - रोज की किचकिच मुझे नहीं चाहिए l कभी आपको चाय टाइम पर नहीं मिलता l तो कभी आप खाना और नाश्ता को लेकर शिकायत करतें हैं l बहुत हुआ अब तो l सुरभि मेरी पत्नी है l किसी की नौकरानी नहीं है l जो दिनभर लोगों के लिए काम करती रहे l "

आदमी खाने के लिए नहीं जीता है lआत्म - सम्मान भी तो कोई चीज होती है ! आत्म - सम्मान को जब आदमी गिरवी रख देता है l तो वो पशु बन जाता है l जिसके सोचने समझने की शक्ति बिलकुल लुप्त हो चुकी हो !

लेकिन, सुरेश बाबू का आत्म- सम्मान था l वो सिर ऊँचा
करके जीने वाले लोगों में से थें l

" सुरेश बाबू - सुरेश बाबू l अरे भाई कहांँ खो गये आप ...क्या हुआ..? कुछ बोलिये भी तो l " कामता सिंह मकान मालिक की आवाज पर जैसे वो चौंक से पडे़ थें l

" आंँ- हांँ....... कुछ नहीं, कुछ नहीं l " .
वो झेंपते हुए बोले l
इस घटना के कुछ दिनों के बाद सुरेश बाबू अशोक भंडार
को छोड़कर हमेशा के लिए बगोदर वाले अपने पुराने मकान में चले गए थे l फिर, वे वहीं रहने लगे l फिर मैंने उन्हें अशोक भंडार में कभी नहीं देखा l

इधर, दिन पंँख लगाकर उड़ने लगे lअशोक बाबू की पत्नी
सुरभि को कोई गंभीर बीमारी हो गई थी l अशोक बाबू भी
डायबिटीज के मरीज हो गये थे l कोयलांचल का बाज़ार
भी अब फीका पडने लगा था l गली - मुहल्ले में अब गल्ले की दूकानें खुल गई थी l कामता मार्केट में अशोक बाबू की गल्ले की दूकान एक गैर- जरूरी दूकान के रूप में जाना जाने लगा l इधर पत्नी के इलाज में अशोक बाबू ने बहुत पैसा खर्च कर डाला था l इधर उनकी बीमारी ने
भी दूकान और उसकी पूंँजी को सुरसा की तरह लील रही
थी l अशोक बाबू अब चिड़चिडे़ से हो गये थे l


जब आर्थिक परेशानी ने मानसिक परेशानी को बहुत बढ़ा
दिया l तो उन्होंने अपनी दूकान, और मकान किसी को बेच दिया था l फिर अशोक बाबू कहीं चले गये थें l पूरे परिवार को लेकर l.


फिर, एक दिन किसी समाचार पत्र में छपी किसी खास खबर को कामता मार्केट के लोग बडे़ अफसोस के साथ पढ़ रहे थे l एक ही परिवार के चार लोगों ने खुदखुशी की l बहुत ही धंँघली तस्वीरों के बावजूद लोगों ने अशोक बाबू, उनकी पत्नी और बच्चों को पहचान लिया था..!

सर्वाधिकार सुरक्षित
महेश कुमार केशरी
C/O - श्री बालाजी स्पोर्ट्स सेंटर
मेघदूत मार्केट फुसरो बोकारो
(झारखंड) 829144
मो -9031991875

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